ढोल की धुन सुनकर खुलती है लोगों की आंख

रोजेदारों को जगाने के लिए बजाया जाता है ढोल

>BAREILLY: मुकद्दस रमजान में रोजे रखने वाले रोजेदारों को सहरी के लिए जगाने को आज भी बरेली में पांच सदी पुराना अलार्म बजता है। यह अलार्म कुछ और नहीं बल्कि ढोल और ताशा है। जिसकी धुन बरेली की सरजमीं पर करीब पांच सदियों से सुनाई दे रही है। यूं तो आज हर किसी के मोबाइल में अलार्म है। जिसे सेट कर लोगों की सहरी के लिए उठ जाते हैं, लेकिन बरेली में सदियों पुरानी चरी आ रही यह परंपरा आज भी चली आ रही है।

धुन सुनते ही खुलती है आंख

ढोल बजाने वाले गु्रप के मेन मेंबर मोहम्मद फरजंद नियाजी बताते हैं कि ढोल बजाने का यह सिलसिला करीब पांच सदियों पुराना है। उनकी खानदान के लोग हमेशा से ही रमजान के दिनों में सहरी के वक्त ढोल बजाकर लोगों को नेक काम के लिए उठाने का काम करते आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि पहले लोगों को सहरी का वक्त पता नहीं चल पाता था। इसलिए ढोलकर बजाकर उन्हें सहरी का वक्त बताया जाता था। जिसे सुनकर लोगों की आंख खुलती थी। यह परंपरा आज भी जारी है।

बंद करने लोग करते हैं एतराज

मौजूद वक्त में मस्जिदों से लाउड स्पीकर के माध्यम से सहरी के वक्त का ऐलान होता रहता है। जबकि लोगों के मोबाइल फोन में अलार्म की भी सुविधा है। बावजूद इसके पांच सदी पुरानी परंपरा को लोग खत्म नहीं होना देना चाहते हैं। मोहम्मद फरजंद नियाजी कहते हैं कि एक बार ढोल नहीं बजाया गया तो लोगों एतराज किया। इसलिए ढोल जरूर बजाते हैं। उनकी टीम में उनके साथ दिलदार, सद्दाम, रईस, संजू, शाका, सलमान, मो। साजिद, सरफराज, नदीम, मो। वसीम, मो। रेहान, तालिब और दानिश शामिल हैं।

ऐसे बनाया जाता है ढोल

सहरी के लिए जो ढोल बनाया जाता है। उसे बनाने में बकरे की खाल का इस्तेमाल किया जाता है। करीब आठ दिन लगता है इस ढोल को बनाने के लिए। एक ढोल को बनाने में करीब दो हजार की लागत आती है। ढोल के साथ एक ताशा भी बजाया जाता है। जो इस धुन को और सुहाना बनता है।