- गोरखपुर पहुंचे कामगारों ने बयां किया दर्द

- लॉकडाउन में बंद हो गया कामकाज, खत्म हो चुके थे पैसे

GORAKHPUR: भगवान एक बार घर पहुंचा दें, बस कुछ और नहीं चाहिए। एक बार घर चले गए तो जिंदगी भर बाहर कमाने नहीं आएंगे। यह कहना है लॉकडाउन के बीच रोडवेज बसों और श्रमिक स्पेशल ट्रेंस से किसी तरह गोरखपुर पहुंचे उन सैकड़ों कामगारों का जो दुखों का पहाड़ लेकर अपने घर लौटे हैं। गोरखपुर पहुंचने पर उनके चेहरों पर काम छूटने का दुख तो था लेकिन इस बात की खुशी भी झलक रही थी कि चलो कम से कम घर तो आ गए। ज्यादातर का कहना था कि अब वापस दूसरे शहर नहीं जाएंगे।

मकान मालिक ने खाली करवा दिया था कमरा

फर्ररुखाबाद में रहकर पेंटिंग का काम करते वाले गोरखपुर के बांसगांव थाना क्षेत्र के माल्हनपार निवासी संगम ने बताया कि मार्च में जब लॉकडाउन शुरू हुआ, उससे पहले ही उनका काम बंद है। लॉकडाउन के बीच उन्हें तमाम दुश्वारियां झेलनी पड़ीं। इस बीच वह लोगों का तिरस्कार झेलते-झेलते इतना टूट चुके हैं कि जीवन भर फर्ररुखाबाद नहीं लौटने की कसम खा ली है। उन्होंने बताया कि वहां छह लोगों के साथ काम करते थे जहां एक कमरा किराए पर लिया था। वह और उनके साथी होली मनाने घर गए थे। वापस जाकर एक-दो ही दिन काम किया था कि लॉकडाउन हो गया। ऐसे में उनके पास पैसे भी नहीं थे। मार्च बीतते-बीतते मकान मालिक ने कमरा खाली करवा लिया तो फर्ररुखाबाद में ही रहने वाले एक गांव वाले के पास रह रहे थे। सरकारी शिविर में भोजन कर जान बचाने को मजबूर थे। इस बीच कई बार पैदल ही घर जाने का मन बनाया लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाए। इस बीच रोडवेज बसों से कामगारों का वापस लाने का ऐलान हुआ तो राहत की सांस ली। बस से गोरखपुर पहुंचने पर संगम का कहना था कि बता नहीं सकता घर लौटकर कितनी खुशी हो रही है। इस बीच जिंदगी का सबसे बड़ा सबक सीखा कि अपनों के बीच रहने में ही सुख है। अब परिवार के साथ रहना चाहते हैं। गांवों में भी डिस्टेंपर, ऑयल पेंटिंग कराने का चलन बढ़ा है। हां मजदूरी बाहर के मुकाबले कम मिलती है लेकिन चाहे कम ही ही कमाएं, घर में तो रहेंगे।

मोबाइल बेच भरा पेट

वहीं, रोडवेज बस से गोरखपुर पहुंचे संतकबीरनगर जिले केबेलहरकला निवासी रामनवल भी वापस लौट काफी खुश नजर आए। उनका कहना है कि उनके गांव में मजदूरी के ढाई सौ रुपए मिलते हैं और बाहर 400 रुपए मिलते थे लेकिन तब भी ज्यादा पैसा नहीं बच पाता है क्योंकि वहां कमरे का किराया देने के साथ-साथ सबकुछ खरीद कर खाना पड़ता है। गांव में तो अपने घर के बाड़ी और छप्पर पर हर समय मौसमी सब्जी कुछ न कुछ होती ही रहती है इसलिए साग-सब्जी की कभी कमी नहीं होती । अब गांव वापस लौट कर जाएंगे और थोड़ा कम पैसा भी मिले तो उसी में गुजारा करेंगे। रामनवल ने बताया कि सरकार की ओर से फ्री भोजन की व्यवस्था कराई जा रही थी लेकिन गरीबों तक नहीं पहुंच पा रहा था। मार्च और अप्रैल तक किसी तरह रहे। उधर बच्चों की भी ंिचंता रही थी सवारी न मिलने की वजह से मजबूरी थी। पैसे भी खत्म हो गए इसलिए मजबूरी में मोबाइल बेचकर पेट भरना पड़ा।

सहनी पड़ीं तमाम दुश्वारियां

नागपुर में रहकर अपने भाईयों के साथ कैंटीन चलाने वाले सहजनवां निवासी विशाल की भी कहानी कुछ ऐसी ही है। उन्होंने बताया कि जब से लॉकडाउन हुआ तब से बिजनेस पूरी तरह ठप हो गया। पैसा न होने की वजह से खाने के भी लाले पड़ गए। दिन-रात सिर्फ गांव की ही याद सता रही थी। किसी तरह एक ट्रक चालक की मदद से बॉर्डर तक आए। तीन दिन में तमाम दुश्वारियां सहते हुए यूपी में प्रवेश करने के बाद रोडवेज की बस से किसी तरह गोरखपुर पहुंचे।

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श्रमिक स्पेशल से बंधी है आस

सरकार ने जब से कामगारों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाने की घोषणा की उनके मन में आस बंधी है कि घर पहुंच जाएंगे। स्पेशन ट्रेन से गोरखपुर पहुंचे कामगार और उनके परिजन भी काफी कुश नजर आए। ज्यादातर का कहना था कि दो पैसा कम कमाएंगे लेकिन गांव में ही परिवार के साथ रहेंगे। अब वापस कमाने नहीं जाएंगे।

कोट्स

फर्ररुखाबाद में पेंट पॉलिश का काम करता हूं। लॉकडाउन में कामकाज बंद होने की वजह से दिक्कत हो रही थी इसलिए परिवार की याद आ रही थी। गांव आने के लिए कई बार प्रयास किए मगर सवारी नहीं मिलने की वजह से नहीं आ सका। सरकार की मेहरबानी है कि आज मैं अपने परिवार के बीच पहुंचा हूं।

संगम, माल्हनपार

एक साल पहले गांव छोड़ कर दिल्ली कपास गुरुग्राम गया था। वहां पीओपी का काम करता हूं। लॉकडाउन में काम बंद होने से स्थिति काफी खराब हो गई। जो भी पैसे थे वह भी खत्म हो गए। परिवार की याद आने लगी। सरकार की मेहरबानी है कि उन्होंन घर पहुंचवा दिया।

रामनवल, संतकबीर नगर

श्रमिक स्पेशन ट्रेन कामगारों के लिए रामबाण साबित हुई है। इस लॉकडाउन में जहां छोटे-मोटे काम बंद होने से भूखमरी की स्थिति उत्पन्न होने लगी। वहीं सरकार ने कामगारों के बारे में सोच कर उन्हें उनके घर तक पहुंचाया।

विशाल, सहजनवां