जब ऑफ़िस में अजमल आमिर कसाब के गाँव जाने की बात चली तो सब मित्रों ने अपने-अपने सुझाव दिए, किसी ने कहा कि वहाँ पहुँच कर उनके दोस्तों से मिलने की कोशिश करना, किसी ने कहा कि उनका परिवार अब आ चुका होगा, उनके माता पिता से बात करना।

एक मित्र ने समझाया कि फरीदकोट मत जाओ वहाँ तुम्हें नुक़सान पहुँच सकता है। मैं उस दोस्त की बात सुन ही रहा था कि अचानक एक और दोस्त ने कहा - 'यार अब वहाँ कुछ नहीं होगा, सरकार ने पहले ही स्वीकार कर लिया है कि वे पाकिस्तानी हैं.' बहरहाल सब दोस्तों ने अपने अपने सुझाव दिए।

मैं इस्लामाबाद से लाहौर पहुँचा और एक रात लाहौर में बिताने के बाद सुबह सुबह फ़रीदकोट के लिए रवाना हुआ। फरीदकोट ओकाड़ा ज़िले में है जो लाहौर से क़रीब 140 किलोमीटर की दूरी पर है।

लाहौर से ओकाड़ा तक का रास्ता ऐसा है जैसा कि दिल्ली से रोहतक का। हरे-भरे खेत, छोटे छोटे शहर और गाँव और कहीं-कहीं ढाबे। लेकिन फ़र्क़ यह है कि ओकाड़ा की सीमा प्रवेश करते ही आप को जेहादी गुटों के प्रभाव की एक झलक ज़रूर मिलेगी। क्योंकि दक्षिण पंजाब के इलाक़ों में जेहादी गुटों का प्रभाव धीरे धीरे बढ़ रहा है।

देखा जाए तो तालेबान और जेहादी गुटों में एक अंतर है। तालेबान का सबसे बड़ा दुश्मन अमरीका है जबकि जेहादी गुटों जिनमें लश्करे तैबा और जैश-ए-मोहम्मद भी शामिल है, भारत को सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं।

जब लाहौर से निकला तो मन में तरह-तरह के ख़्याल आने लगे और पूरे रास्ते में सोचता गया कि फ़रीदकोट पहुँच कर अजमल कसाब की माता और पिता से बात करुँगा, उन के दोस्तों से पूछूँगा और उन के रिश्तेदारों से बात करूँगा कि जब वे फ़रीदकोट में थे तो वे क्या सोचते थे?

मैं सुबह क़रीब 10 बजे दीपालपुर शहर पहुँचा। वहाँ से फ़रीदकोट क़रीब आठ किलोमीटर की दूरी पर है। दीपालपुर पहुँचने के बाद मैंने स्थानीय पत्रकार रब नवाज़ जोया और जावेद चंडोड़ से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन दोनों के मोबाइल फोन बंद थे। जब दीपालपुर में भी संपर्क नहीं हो पाया तो मैं दीपालपुर प्रेस क्लब का पता पूछते-पूछते वहाँ पहुँच गया।

पुलिस का पहरा

प्रेस क्लब में जैसे ही दाख़िल हुआ तो अधिकतर पत्रकार वहाँ मौजूद थे और आपस में बातें कर थे। उनमें से कुछ परेशान भी दिख रहे थे। मैंने अपना परिचय दिया और रब नवाज़ जोया और जावेद चंडोड़ का पूछा तो पता चला कि दोनों को मेरे आने के एक दिन पहले पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है। मैं यह बात सुनकर काफ़ी परेशान हुआ और तुरंत ही दीपालपुर पुलिस स्टेशन पहुँच गया।

वहाँ पर पत्रकारों और स्थानीय लोगों की काफ़ी भीड़ थी और पुलिस आम लोगों को अंदर जाने नहीं दे रही थी। जब मैं दोनों बंदी पत्रकारों से मिला तो उन्होने बताया कि 'पुलिस ने उन्हें झूठे मुक़दमे में फंसाया है.'

पत्रकारों पर आरोप है कि उन्होंने एक वकील की कार चोरी करने की कोशिश की और सरकार की ओर से प्रेस क्लब को मिलने वाले फंड में घोटाला किया। लेकिन पत्रकारों ने बताया कि उन्हें अजमल आमिर कसाब का गाँव ढूंढ़ने की सज़ा दी जा रही है।

आपको याद होगा कि पिछले साल मुंबई हमलों के बाद जब यह बात सामने आई कि एक मात्र ज़िंदा पकड़ा गया बंदूकधारी अजमल आमिर कसाब फ़रीदकोट से है तो इन दोनों पत्रकारों ने उनके गाँव को ढूंढ़ा था।

इन पत्रकारों ने पिछले साल बीबीसी उर्दू सेवा के अली सलमान को भी अजमल आमिर का गाँव दिखाया था। पत्रकारों ने बताया कि पिछले साल से ख़ुफिया एजेंसी के लोग उन को तंग कर रहे थे। पुलिस स्टेशन से निकल कर मैं शहर में अजमल कसाब के बारे में लोगों से बात करने के लिए निकल पड़ा। उसी समय मुझे लगा कि कुछ लोग मेरा पीछा कर रहे हैं।

मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, लेकिन एक पत्रकार जो दीपालपुर में मेरे साथ था, उसने बताया कि यह खुफ़िया एजेंसी के लोग हैं और इस विषय पर किसी को बात करने नहीं देते।

ख़ुफ़िया पुलिस की नज़र

खुफ़िया एजेंसी के लोगों से छिपकर मैंने एक पार्क में कुछ छात्रों से बात करने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। क्योंकि वह लोग लगातार मेरा पीछा कर रहे थे। प्रेस क्लब में पत्रकारों ने बताया कि पिछले एक साल से खुफ़िया एजेंसी के लोगों ने उन पर पैनी नज़र रखी हुई है।

मैंने पत्रकारों से फ़रीदकोट चलने के लिए कहा लेकिन सबने मना कर दिया और कहा कि वहाँ जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं होगा। उन्होंने मुझे कहा, "अगर आप अपने रिस्क पर जाना चाहते हो तो जाओ, हम नहीं चल सकते आपके साथ." बहरहाल मैं पत्रकारों के रोकने के बावजूद फ़रीदकोट गया। फरीदकोट में तीन-चार सौ घर हैं।

फ़रीदकोट पहुँच कर मैंने एक व्यक्ति से पूछा कि अजमल कसाब का घर कहाँ है। उन्होंने पहले तो मुझे ऊपर से नीचे तक संदेह भरी नज़रों से देखा और कुछ बोले बिना एक सड़क की ओर इशारा किया। मैं उनकी बताई हुई सड़क पर गया और वहाँ से एक तस्वीर खींची।

तस्वीर खींचते हुए देख कर कुछ लोग मेरी गाड़ी के सामने आए और पूछा कि 'तुम कौन हो और यहाँ की तस्वीर क्यों ले रहे हो.' मैंने कहा कि 'मैं बीबीसी से आया हूँ और अजमल कसाब के परिवार से मिलना चाहता हूँ.'

उनमें से एक व्यक्ति ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, "अपना कैमरा और रिकॉर्डर गाड़ी में रखो और यहाँ से फ़ौरन चले जाओ." मैंने उन लोगों को कहा कि 'मैं पाकिस्तानी हूँ और कहीं भी जा सकता हूँ, जिस पर उन्होंने कहा कि यहाँ से चले जाओ.इसमें तुम्हारा भला है.'

मैंने लोगों के इरादों को भांप लिया और वहाँ से चला गया। अपने मनमें कई कुछ सोच कर गया था, लेकिन अजमल आमिर कसाब के परिवार से मुलाक़ात नहीं हो सकी।

पत्रकारों ने बताया कि उन का परिवार पिछले एक साल से ग़ायब है और घर में कोई नहीं है। मेरे वहां से निकलने के कुछ दिनों बाद पत्रकार रबनवाज़ जोया और जावेद चंडोड़ को पुलिस ने रिहा कर दिया।

मेरे एक और साथी पत्रकार फ़रीदकोट गए लेकिन उन को भी वही दिक्कतों का सामना करना पड़ा जो मैंने किया। अजमल कलाब के गाँव तक पत्रकारों को न जाने देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बड़ा प्रश्न चिह्न है।

International News inextlive from World News Desk