शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इसकी वजह से बनने वाले नए 'सुपर कॉंन्टिनेन्ट' में अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल होंगे। ऐसी घटना इससे पहले तीस करोड़ वर्ष पहले हुई थी जब महाद्वीपों ने इसी तरह एक सुपर कांटिनेन्ट का निर्माण किया था जिसे पेनगिया कहा जाता है। नए शोध का विवरण नेचर जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

ऐसा पहले भी हुआ है

पृथ्वी की भू-गार्भिक गतिविधियों के कारण ज़मीन अपनी जगह से लगातार खिसक रही है। इस हलचल की वजह से मिड-अटलांटिक रिज जैसी जगहों का निर्माण होता है जहां अब आइसलैंड है। इतना ही नहीं, जापान का तट भी ऐसी ही हलचलों की वजह से अस्तित्व में आया जहां धरती की एक सतह दूसरी सतह से मिलती है।

भूगर्भ वैज्ञानिकों का मानना है कि अरबों वर्षों में धरती की यही खिसकती सतहें महाद्वीपों को एक-दूसरे के क़रीब लाईं और इससे 'नूना' नामक 'सुपर कांटिनेन्ट' बना। ये 1.8 अरब वर्ष पहले की बात है।

उनका मानना है कि तीस करोड़ वर्ष पहले बिल्कुल इसी तरह पेनगिया नामक 'सुपर कांटिनेन्ट' का जन्म हुआ था। रोचक बात है कि अगले 'सुपर कांटिनेन्ट' का नामकरण पहले से ही किया जा चुका है। उम्मीद है कि 'अमेशिया' नामक ये 'सुपर कांटिनेन्ट' अमरीका और एशिया महाद्वीप के मिलने से बनेगा।

येल यूनिवर्सिटी के रॉस मिचेल ने बीबीसी को बताया, ''पेनगिया की अवधारणा से हम सभी परिचित हैं। लेकिन इस बात को समझाने वाले जानकारी कम ही रही है जिससे पता चले कि सुपर कांटिनेन्ट किस प्रकार आकार लेता है.''

उन्होंने बताया, ''हमारे मॉडल में, उत्तरी अमरीका और दक्षिणी अमरीका को मिलाते हुए, कैरेबियाई सागर और आर्कटिक सागर को बंद करके अमरीका और एशिया को जोड़ा गया है.''

'शोध से मदद मिलेगी'

इस मॉ़डल में अमरीका का मेल उस जगह से कराया गया है जिसे हम 'प्रशांत अग्नि वलय' के नाम से जानते हैं। इस नये क्षेत्र में यूरोप, यूरेशियाई भूमि का कुछ हिस्सा, अफ़्रीका और ऑस्ट्रेलिया के शामिल होने का अनुमान है।

जिस नए 'सुपर कांटिनेन्ट' की यहां बात की जा रही है, उसमें केवल अंटार्कटिका महाद्वीप शामिल नहीं होगा। ये अनुमान दरअसल उन 'मैग्नेटिक डेटा' के विश्लेषण पर आधारित है जिन्होंने दुनियाभर में चट्टानों को एक तरह से बांधकर रखा है।

रॉस मिचेल कहते हैं, ''प्राचीन चट्टानें, वो चाहे किसी भी प्रकिया से बनीं हों, एक ख़ास तरह के चुम्बकीय गुण की वजह से जुड़ जाती हैं। इससे अक्षांश का एकदम सटीक संकेत मिल जाता है लेकिन ऐतिहासिक रूप से हमें देशांतर के संकेत नहीं मिले.''

उन्होंने बताया, ''हमे पता चला कि हर 'सुपर कांटिनेन्ट' अपने निर्माण के बाद भूमध्य रेखा पर लगभग एक ही धुरी पर सिलसिलेवार तरीक़े से आगे-पीछे घूमता हैं।

इससे शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष निकाला कि हर नया 'सुपर कांटिनेन्ट' पुराने 'सुपर कांटिनेन्ट' से 90 डिग्री की दूरी बनाता है। पहले हुए शोधों से संकेत मिलता है कि 'सुपर कांटिनेन्ट' धरती के एक ही हिस्से में या फिर इसके दूसरे हिस्से में बनते हैं।

ओपन यूनिवर्सिटी से जुड़े डॉक्टर डेविड रॉथरी का कहना है कि नए शोध से पृथ्वी के इतिहास को समझने के लिए हमें बेहतर नज़रिया मिलता है।

उन्होंने बीबीसी को बताया, ''हम अतीत के वातावरण को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं, यदि हमें सटीक पता चल जाए कि ये वातावरण आख़िर थे कहां, एक यूरोपीय होने के नाते मैं नहीं सोचता कि मैं इस बात की परवाह करता हूं कि महाद्वीप उत्तर ध्रुव पर आपस में मिलने वाले हैं या कहीं दूर भविष्य में ब्रिटेन की अमरीका से टकराने वाला है। भविष्य के बारे में अनुमान उतनी चिंता की बात नहीं है जितनी ये कि अतीत में क्या हुआ था.''

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