कानपुर (ब्यूरो)। सचेेंडी में चौकी इंचार्ज सत्येंद्र और सिपाही अजय की प्रताडऩा से परेशान होकर कारोबारी सुनील ने फांसी लगा ली। सचेंडी थाने में ही दोनों आरोपियों पर केस दर्ज किया गया। रावतपुर में तैनात दारोगा सचिन मोराल ने युवती को शादी का झांसा देकर रेप किया। मामले में हरबंसमोहाल थाने में केस दर्ज किया गया। थोड़ा और पीछे चलें तो गोविंद नगर में फर्जी एसटीएफ बनकर कारोबारी का अपहरण और वसूली के लिए धमकाना। पूरी साजिश एक सिपाही ने रची थी। इसी तरह सर्विलांस सेल में तैनात सिपाही अजय साइबर ठगों के साथ मिलीभगत लोगों को लूटता था, आरोपी पर केस भी दर्ज किया गया। ये सारे वो मामले हैैं जिनमें पुलिसकर्मियों ने खाकी को बदनाम करने के साथ उस पर बदनुमा दाग लगाए। लेकिन मजाल है कि इनमें से कोई भी गिरफ्तार हुआ हो। सब फरार हैं लेकिन न तो फरारी घोषित की न कोई ईनाम घोषित किया। क्योंकि मामला अपनों का है। जी हां, पुलिस अपनों पर यूं ही मेहरबान रहती है और उनको अभयदान देती है।

विवेचना और विभागीय जांच में फंसी है कार्रवाई
सचेंडी में कारोबारी के सुसाइड करने के मामले में विभागीय जांच एसीपी पनकी टीबी सिंह कर रहे हैैं, जबकि मामले की विवेचना की जिम्मेदारी थाने का चार्ज संभाल रहे आईपीएस अमोल मुरकुट कर रहे हैैं। वहीं हरबंस मोहाल थाने में दर्ज रेप के मामले की विवेचना हरबंश मोहाल इंस्पेक्टर विक्रम सिंह और विभागीय जांच एसीपी कलक्टरगंज मोहसिन खां कर रहे हैैं। इसी तरह गोविंद नगर और क्राइम ब्रांच के मामले में भी विवेचना और विभागीय जांच चल रही है। कई और भी पुराने मामले हैं जिनमें आरोपी खाकीवर्दी वाला है लेकिन कोई बड़ी कार्रवाई नही की गई। क्योंकि जांच अभी जारी है।

अब तक नहीं लगी चार्जशीट
गोविंद नगर में व्यापारी की किडनैपिंग की बात की जाए तो इस मामले को आठ महीने से ज्यादा हो गए लेकिन इस मामले में अभी तक न तो चार्जशीट लगी और न ही फाइनल रिपोर्ट। अब अगर क्राइम ब्रांच के केस की बात करें तो उसमें भी यही स्थिति हैैं। इस मामले को दो साल से ज्यादा हो गया। जब इसकी वजह जानने की कोशिश की गई तो पुलिस अधिकारियों ने विभागीय जांच की बात कहते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया।

जानिए क्या होती है विभागीय जांच

पुलिस रेग्यूलेशन एक्ट में प्रावधान है कि किसी भी पुलिसकर्मी पर कार्रवाई करने के लिए विभागीय जांच रिपोर्ट बहुत जरूरी है। विभागीय जांच पुलिस के ही किसी सीनियर ऑफिसर से कराई जाती है। इस जांच की कोई समय सीमा नहीं होती है। इसे दो महीने से लेकर दो साल और दो साल से लेकर पांच साल तक कर सकते हैैं, बस फाइल मोटी होती चली जाती है। जिसका सीधा फायदा आरोपी पुलिसकर्मी को मिलता है। अब विवेचना की बात की जाए तो ये भी जान लीजिए कि जब तक विभागीय जांच पूरी नहीं हो जाएगी, आईओ(इंवेस्टिगेटिंग ऑफिसर)को बदलते रहेंगे लेकिन विवेचना पूरी नहीं हो पाएगी। बस इसी एक्ट का फायदा वे पुलिसकर्मी उठा रहे हैैं जिनके खिलाफ केस दर्ज किया जाता है।

कम्प्रोमाइज का पूरा मिलता है समय
विभाग से सीनियर ऑफिसर की पोस्ट से रिटायर हुए पुलिसकर्मियों की मानें तो जांच के दौरान हीं पीडि़त पक्ष से कम्प्रोमाइज का पूरा समय मिलता है। दबाव या रुपये पैसे का लालच देकर लोग दूसरे पक्ष को कम्प्रोमाइज लिए तैयार कर लेते हैैं। लगभग 20 दिन पहले कानपुर के सचेंडी में दर्ज हुए केस में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। विवेचना और विभागीय जांच के बीच दोनों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। किसी भी अपराधी को चंद दिनों में तलाश करने के बाद जेल भेजनेे वाली पुलिस को अपने ही विभाग के पुलिस कर्मी नहीं मिल रहे हैैं। किसी क्रिमिनल के न मिलने पर वारंट जारी करवा लिए जाते हैैं। ये वारंट पुलिस विभाग और कोर्ट दोनों से किए जाते हैैं। दरअसल कमिश्नरेट होने की वजह से ये वारंट वह पुलिस अधिकारी जारी कर सकता है जो कोर्ट लगाता है।

सालों से चल रहा है ये खेल
क्राइम, केस दर्ज, जांच और कार्रवाई के नाम पर ट्रांसफर। इसके बाद कुछ दिनों में ही दूसरे जिले में बहाली। अपनों को सजा से बचाने और कार्रवाई के नाम पर ये खेल पुलिस विभाग में सालों से चल रहा है। कानपुर में भी हुए मामलों को देखते हुए पुलिस अधिकारी कार्रवाई की बात तो कह रहे हैैं, लेकिन कोई कार्रवाई 20 दिन बाद भी दिख नहीं रही है।