लखनऊ (ब्यूरो)। सिजोफ्रेनिया एक तरह का बायलॉजिकल डिस्आर्डर है। यह ऐसी बीमारी है जिसके बारे में लोगों को ज्यादा पता नहीं है। इसमें इंसान खुद से बात करना, भ्रम की स्थिति, अनसोशल होना, अदृश्य चीजें दिखाई देना आदि की समस्या होने लगती है। पर इसके बावजूद करीब 70 फीसदी मरीज डॉक्टर के पास इलाज के लिए पहुंचते ही नहीं हैं। वे झाड़-फूंक में लगे रहते हैं। इससे समय खराब होता है। ऐसे में, मरीज के देर से डॉक्टर के पास पहुंचने से इलाज मुश्किल हो जाता है, इसलिए समय रहते साइकियाट्रिस्ट को दिखाकर इसका इलाज शुरू करना चाहिए।

ओपीडी में आते हैं 20 फीसदी मरीज

केजीएमयू के साइकियाट्रिक विभाग के डॉ। आर्दश त्रिपाठी के मुताबिक, सिजोफ्रेनिया एक तरह का ब्रेन डिस्आर्डर है, जो न्यूरान और केमिकल्स के असंतुलन की वजह से होता है। यह बीमारी नवयुवकों में ज्यादा देखने को मिलती है। खासतौर पर 15-25 वर्ष के बीच के युवाओं में। ओपीडी में 20 फीसदी मरीज इससे ग्रसित आते हैं। यह बीमारी शुरू युवा अवस्था में ही होती है। कई रिसर्च बताती हैं कि हर 100 में से 20 फीसदी मरीज सिजाफ्रेनिया से ग्रसित होते हैं।

जेनेटिक्स की भूमिका है महत्वपूर्ण

डॉ। आदर्श त्रिपाठी के मुताबिक, इस बीमारी में जेनेटिक्स की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। जींस में बदलाव का असर ब्रेन के डेवलपमेंट व स्ट्रक्चर पर होता है। ऐसे में, बीमारी बढ़ाने का रिस्क होता है। जो युवा बायोलॉजिकली अतिसंवेदनशील होते हैं यानि उनके ब्रेन में जेनेटिक गड़बड़ी होती है और वे चरस, गांजा आदि का नशा करते हैं, तो उनमें यह बीमारी होने की गुंजाइश काफी बढ़ जाती है। अगर फैमिली हिस्ट्री है, तो भी लोगों को यह हो सकती है।

समय पर इलाज है जरूरी

इस बीमारी का मुख्य इलाज दवाइयां ही हैं। कई तरह की दवायें मौजूद हैं, जो काफी असरदार और सेफ होती हैं। हालांकि, इन दवाओं का फायदा तभी है जब इलाज जल्द से जल्द शुरू हो सके। देर से इलाज होने पर दवा का असर कम होता है।

ये हैं इस बीमारी के लक्षण

- ऐसी चीजों को सच मानना जो झूठी होती हैं

- संदेह होना कि कोई पीछा कर रहा, मारना चाह रहा है

- सोच का गड़बड़ होना

- मैं बाकि लोगों से अलग हूं

- ऐसी चीजें सुनाई देना जो वास्तव में नहीं हैं

- कुछ दिखाई देना लेकिन वो होता नहीं है

- गुमसुम रहना

- झगड़ा-लड़ाई

- सोना नहीं

- गंदे तरीके से रहना

सिजोफ्रेनिया के बारे में अभी भी लोगों को सही से पता नहीं है। करीब 70 फीसदी मरीज इलाज के लिए डॉक्टर के पास पहुंचते ही नहीं हैं, जबकि समय रहते इसका इलाज बेहद जरूरी है।

- डॉ। आदर्श त्रिपाठी, केजीएमयू