लखनऊ (ब्यूरो)। दुनिया में चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी है, लेकिन समय के साथ हिंदी भी कहीं न कहीं पीछे रह गई। पर बदलते परिवेश के बीच हिंदी के रखवाले इस भाषा को उसका खोया हुआ सम्मान वापस दिलाने के लिए काम कर रहे हैं। जहां कोई कविता के माध्यम से साइंस की मुश्किल बातें भी आसानी से समझा रहा है, तो कोई नौकरी छोड़कर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए काम कर रहा है। पेश है अनुज टंडन की खास रिपोर्ट।

हिंदी में कर रहा अनुवाद

अपने स्तर पर विज्ञान को आम जन की भाषा हिंदी में लोगों तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं। पिछले एक वर्ष में दर्जनों व्याख्यानों, 10 लेखों, कविताओं, व्यंग्यचित्र, अनेक रेडियो वार्ताओं एवं टेलीविजन चर्चाओं के माध्यम से कर चुका हूं। इसके अलावा पुस्तकों का अनुवाद करने का भी काम कर रहा हूं। साथ ही विज्ञान पर साक्षात्कार अंग्रेजी में करके हिंदी में प्रकाशित किया है। लोगों को विज्ञान समझ आ सके इसके लिए हिंदी में बोलता व लिखता हूं। तथा उसके लिए दूर दराज के गांवों में भी जाता हूं। साइंस को हिंदी भाषा की मदद से ही आमजन तक पहुंचाया जाता है।

- डॉ। सीएम नौटियाल, साइंटिस्ट

साइंस को कविता से बना रहे आसान

मैं विज्ञान के क्षेत्र के कामों को पिछले 18 वर्षों से हिंदी के काव्य मंचों पर प्रस्तुत कर रहा हूं। सीडीआरआई में काम करने का यह फायदा मिला कि मैं राजभाषा से संबंधित कार्यों के बारे में भी जान सका। मैं कोशिश करता हूं कि विज्ञान से जुड़ी शब्दावलियों को कविता में डाल कर आम लोगों तक पहुंचा सकूं ताकि लोग आसानी से बड़ी-बड़ी बातें समझ सकें। इस संदर्भ में मैं दो किताबें भी लिख चुका हूं। मेरी कई कविताओं के कई एक्टर भी अपनी आवाज दे चुके हैं। वैज्ञानिक चेतना का प्रसार कविता के जरिए ही बेहतर ढंग से हो सकता है। मैं हिंदी माध्यम में विज्ञान की कविताएं लिख रहा हूं ताकि विज्ञान को सीरियस न समझा जाए बल्कि सेलिब्रेट किया जाये। अगर हम छोटे बच्चों को विज्ञान के तमाम सारे सिद्धांतों को बचपन में ही कविता के जरिए समझा सकें, तो वे भविष्य में अच्छे वैज्ञानिक, इंजीनियर और डॉक्टर बन सकते हैं।

- पंकज प्रसून, साइंटिस्ट

दर्द समझने के लिए हिंदी बेहतर माध्यम

मैं पेशे से अंग्रेजी लेक्चरार हूं, लेकिन काफी समय से हिंदी में व्यंग्य लिखता आ रहा हूं। व्यंग्य इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि यह जनमानस की बात करता है। समाज की विसंगतियों व विडंबनाओं पर तीखा कटाक्ष करता है। मेरा मानना है कि जबतक जनमानस की भाषा में बात नहीं करेंगे तबतक उसकी पीड़ा को नहीं उठा पाएंगे। इसी कारण मैंने हिंदी का चुना। कोशिश रहती है कि हिंदी के माध्यम से ही काम करूं। मेरे पांच व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं। आगे एक उपन्यास चल रहा है। हिंदी संस्थान से अवार्ड भी मिल चुका है। इसके अलावा यूट्यूब के माध्यम से भी लोगों तक पहुंच बना रहे है। ऐसे में लोगों को भी आम बातचीत अपनी भाषा में ही करनी चाहिए, जिससे हिंदी का व्यपाक प्रचार व प्रसार हो सके।

- अलंकार रस्तोगी, व्यंगकार