सिविल हॉस्पिटल

- 400 बेड

- 85 डॉक्टर्स की पोस्ट

- 78 डाक्टर्स तैनात

- 8 हजार की ओपीडी

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बलरामपुर हॉस्पिटल

- 756 बेड

- 05 हजार ओपीडी में मरीज

- 94 डॉक्टर्स के पद

- 14 पद पड़े खाली

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लोहिया अस्पताल

- 467 बेड हॉस्पिटल में

- 114 डॉक्टर्स के हैं पद

- 94 पर डॉक्टर ही पोस्ट

- 04 हजार ओपीडी में मरीज

केजीएमयू

- बेड 4500

- डॉक्टर 450

- ओपीडी 10 हजार मरीज

लंबी लाइनें बढ़ा रही मरीजों का दर्द

- संसाधनों के अभाव में खुद बीमार हो गये शहर के हॉस्पिटल

LUCKNOW : राजधानी ही नहीं प्रदेश में सबसे अहम स्थान रखने वाला बलरामपुर चिकित्सालय भी मरीजों के बोझ तले दबा है। वहीं प्रदेश का सबसे वीआईपी अस्पतालों में शुमार डॉ। श्यामा प्रयास मुखर्जी अस्पताल (सिविल) खुद बीमार है। मरीजों के बढ़ते बोझ तले अस्पताल खुद को असहाय महसूस कर रहा है। कुछ ऐसा ही हाल डॉ। राम मनोहर लोहिया अस्पताल और राजधानी ही नहीं प्रदेश भर के मरीजों की तकलीफ दूर करने वाले किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी और संजय गांधी पीजीआई का भी है। लंबे समय से मरीजों और अन्य लोगों को इस समस्या से निजात मिलने का बेसब्री से इंतजार है, लेकिन मरीजों का दर्द कम होने की बजाए बढ़ता जा रहा है।

बलरामपुर : दोगुने हो गया मरीजों का बोझ

प्रदेश के सबसे पुराने अस्पतालों में शुमार बलरामपुर अस्पताल में पिछले 10 वर्षो में ही मरीजों की संख्या ढाई से तीन गुनी पहुंच गई है। लेकिन डॉक्टर्स की संख्या और पदों में इस हिसाब से कोई इजाफा नहीं हुआ है। सोमवार को ही कई ओपीडी में मरीजों की संख्या 400 के आंकड़े को भी पार कर गई। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि डॉक्टर द्वारा इलाज देने की गुणवता क्या होगी। गोलागंज निवासी राम सिंह सांस की तकलीफ से परेशान हैं। वह सोमवार को डॉक्टर को दिखाने पहुंचे थे। लेकिन परचा बनवाने में ही 10.30 बज गए। इसके बाद लाइन में लगने के बाद करीब 12 बजे वह डॉक्टर तक पहुंच सके। डॉक्टर ने जांचे लिखी लेकिन काउंटर बंद हो चुका था। दवा काउंटर पहुंचे तो उन्हें सिर्फ पांच दिन की ही दवा दी गई। उन्होने कहा कि तीन बार अस्पताल आने से अच्छा है कि एक बार में ही प्राइवेट में दिखा लेते।

केजीएमयू: तीन घंटे बाद आता है नंबर

ठाकुरगंज निवासी निर्मल तिवारी अपनी पैर में चोट को दिखाने आए थे। निर्मल ने बताया कि यहां सब कुछ ठीक है, लेकिन मरीजों की लंबी लाइन और लगने वाला समय खलता है। डॉक्टर को दिखाने में तीन घंटे से अधिक का समय लग गया। लाइन बहुत लंबी थी। जांच के लिए अगले दिन आने को कहा है। लाइन में लगने वाला समय दर्द को और बढ़ाता है। इससे छुटकारा मिले तो बहुत अच्छा हाेगा।

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वीआईपी अस्पताल में इलाज संकट में

वीआईपी अस्पताल कहा जाने वाला हजरतगंज स्थित डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी (सिविल) अस्पताल खुद बीमार है। मरीजों के बढ़ते बोझ तले अस्पताल खुद को असहाय महसूस कर रहा है। ऊपर से सुविधाओं के अभाव और मैनपावर की क्राइसिस से दबा हुआ है। कोई दिक्कत होने पर वीआईपी मरीजों को यहीं पर इलाज मिलता है। राज्यपाल और सीएम के यहां पर भी यहीं के डॉक्टर इलाज करने जाते हैं। लेकिन सोमवार को दोपहर 12.30 बजे परचा काउंटर पर मरीजों की भारी भीड़ थी। हर लाइन में 30 से 50 मरीज तक लाइन में लगे थे। तेलीबाग से आए राम सिंह ने बताया कि वह 11 बजे ही परचा बनवाने पहुंच गए थे। लंबी लाइन थी इसलिए नंबर आते आते साढ़े 12 बज गए। जब तक इनका परचा बनेगा कई तो डॉक्टर की ओपीडी भी खत्म हो जाएगी। लेकिन यहां पर यह रोज की स्थिति है। हॉस्पिटल के जिम्मेदारों के मुताबिक समय के साथ यहां पर मरीजों की भीड़ बढ़ती गई लेकिन अस्पताल में जगह सीमित है। परचा और दवा काउंटर पर भीड़ अधिक है और काउंटर की संख्या बढ़ाने की आवश्यक्ता है। लेकिन अस्पताल में इसके लिए पर्याप्त जगह नहीं है। अब इससे आगे काउंटर बढ़ाए नहीं जा सकते। पार्किंग का भी अभ्ाव है।

मैन पावर बड़ी समस्या

मरीजों के बोझ तले दबे सिविल, बलरामपुर और लोहिया हॉस्पिटल में फिजीशियन की भारी कमी है। रोजाना यहां पर लगभग तीन से 5 हजार से अधिक पुराने मरीज दिखाने आते हैं। इनमें से लगभग ढाई हजार मरीज बुखार, जुकाम, सहित अन्य बीमारियों के साथ फिजीशियन के पास आते हैं। लेकिन इन अस्पतालों में फिजीशियन भी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं। कहीं फारेंसिक एक्सपर्ट तो कहीं फार्माकोलॉजी एक्सपर्ट जबरन फिजीशियन का काम कर रहे हैं। इन तीनों की अस्पतालों में फिजीशियन की संख्या तीन गुने से अधिक बढ़ाए जाने की आवश्यक्ता है।

अल्ट्रासाउंड का लंबा इंतजार

शहर के प्रमुख हॉस्पिटल में अल्ट्रासाउंड के लिए मशीनें लगी हैं लेकिन डॉक्टर्स की संख्या मरीजों के अनुपात में पर्याप्त न होने के कारण ज्यादातर मरीजों को या तो बाहर से इलाज कराना पड़ता है या फिर महीने भर बाद की तारीख मिलती है। जबकि ज्यादातर मरीज इस हालत में होते हैं कि उन्हें तुरत इलाज चाि1हए।

छलका दर्द

अस्पताल खुद बीमार हैं, यहां एक बार इलाज कराने में कई घंटे लगते हैं। इलाज का समय कम हो जाए तो इन अस्पतालों से अच्छा कुछ नहीं।

- बीआर वरुन, हजरतगंज

दस साल पहले भी वही हाल था और अब भी वही हाल है। कभी दो तीन घंटे धक्के खाए बगैर इलाज मिल पाना मुश्किल है। ये दर्द बढ़ाते हैं।

- शराफत, हजरतगंज

अस्पतालों में न समय पर इलाज मिलता है और न दवाएं, ज्यादातर मरीजों को दवाएं बाहर से खरीद कर लेनी पड़ रही हैं। - हरीश पाल, डालीगंज