-सिटी में छिन गया है बच्चों का बचपन, छोटे-छोटे बच्चे कर रहे काम

-मजबूरी और जबरदस्ती काम करने वाले मासूमों को कैलाश सत्यार्थी की तलाश

VARANASI: देश का भविष्य कहे जाने वाले मासूमों की ये दयनीय तस्वीरें बनारस की हैं। जिन्हें देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन बच्चों का भविष्य किस कदर अधर में है। इनका बचपन हो या यौवन, वह मजबूरियों की सिसकियां ले रहा है। फिर चाहे वे पेट की आग शांत करने की मजबूरियां हों या घर चलाने की मजबूरियां। यह तो महज बानगी भर है। देश भर में ऐसी हजारों तस्वीरें मिल जाएंगी जो अपनी बदनसीबी पर रो रही हैं। लेकिन ये बच्चे भी पढ़ना चाहते हैं, बढ़ना चाहते हैं, कुछ करना चाहते हैं, कुछ बनना चाहते हैं। इसके लिए इन्हें किसी फरिश्ते के हाथ के साथ की दरकार है। एक ऐसा फरिश्ता जो इन्हें इनका हक, इनका सम्मान और इनका मुकाम दिलाने में इनकी हेल्प करे। जिन हाथों में आज किताबें होनी चाहिए, दुर्भाग्यवश उनमें कहीं चाय की गिलास दिखती है तो कहीं जूते पॉलिश करने वाला ब्रश। कहीं झाड़ू दिखती है तो कहीं जूठे बर्तन। यह विडंबना ही है कि इक्कीसवीं सदी और बाल श्रम कानूनों की मौजूदगी के बावजूद ये मायूस तस्वीरें सामने हैं। लेकिन इन तस्वीरों पर छाई मजबूरी की धुंध को दूर करने की कोशिश करने वाले भी हैं। इन्हीं में से एक नाम है कैलाश सत्यार्थी का। जिन्होंने बच्चों को उनका हक व सम्मान दिलाने के लिए अनेक प्रयास किये व कर रहे हैं। जिसके लिए उनके नेक प्रयासों को पहचान देने व उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए बुधवार को नॉर्वे में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया।

कूड़े से पाल रहे पेट

शहर का शायद ही कोई एरिया होगा जहां कंधे पर लंबा चौड़ा बोरा टांगे कूड़ा बीनते मासूम न दिखायी देते हों। जब कंधे पर बैग टांगे घर-घर से बच्चे स्कूल पहुंचते हैं तो ये मासूम अपनी जिंदगी के लिए कूड़े की तलाश में निकलते हैं। जहां कूड़ा कचरा दिखा बस वहीं ठहर गए और ढेर के बीच से अपने मतलब का सामान ढूंढने लगे। वह भी नंगे हाथों से। जिस कूड़े कचरे को आप शायद छूना भी पसंद नहीं करेंगे, उसे ये बड़े आराम से हाथ से उठाते हैं और अपने बोरे में रख लेते हैं। यह सिलसिला शाम तक चलता है।

दूसरे का चमका रहे भविष्य

होटल, ढाबों, रेस्टोरेंट्स व दुकानों पर काम करने वाले बच्चों को जूठे बर्तन को चमकाते देखना आम बात है। जिन बच्चों के हाथ में देश का भविष्य होता है, उनके हाथ में कलम किताब की जगह गंदे बर्तन होते हैं। इनको साफ करने भर से इनके पेट की आग शांत होती है। यहां पढ़ाई और भविष्य बनाने का तो दूर-दूर का नाता नहीं है। यही वजह है कि ये चाहकर भी इस दलदल से निकल नहीं पा रहे हैं। ऐसा नहीं कि इनको अपने भविष्य का फिक्र नहीं है लेकिन दुर्भाग्य कि इनको संवारने वाला कोई नहीं है।

पेट भरें या करें पढ़ाई

वो तो मजबूर हैं जो होटल, रेस्टूरेंट, ढाबे, फैक्ट्री व दुकानों पर काम करते हैं लेकिन उनका क्या जिनके कंधे पर फेमिली मेंबर्स का पेट पालने की जिम्मेदारी होती है। ऐसे बच्चे या तो चाय, पान, फल, सब्जी व जूता पालिश करने की दुकानों पर जी तोड़ मेहनत करते हैं या अपने फेमिली मेंबर्स का अन्य व्यवसायों में हाथ बंटाते हैं। दुनिया से बेखबर रहने की उम्र में उनके ऊपर इतनी बड़ी-बड़ी जिम्मेदारी होती है कि उतनी बड़ी जिम्मेदारी बड़े बड़ों के कंधे पर नहीं होती। इन्हीं जिम्मेदारियों के बीच ये कब बच्चे से बड़े हो जाते इनको ही पता नहीं चल पाता।

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ये हैं ठौर

-रेलवे स्टेशन

-रोडवेज बस स्टैंड

-सब्जी, फल व गल्ला मंडियां

-होटल्स, रेस्टोरेंट्स, ढाबे

-फास्ट फूड व चाय की दुकान

-फल की दुकान

-सब्जी की दुकान

-बाइक व कार वर्कशॉप

-साड़ी व कारपेट की फैक्ट्री

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जेल तक की सजा

बहुत सारे मासूम हैं जो बचपन से ही अभिशप्त हैं। उनको पता ही नहीं कि बचपन किस चिडि़या का नाम है। लेकिन बहुत सारे ऐसे होते हैं जिनका बचपन जानबूझकर छिन लिया जाता है। ऐसे लोग खुलेआम बच्चों से बेरहमी से पेश आते हैं। पढ़ने-लिखने और खेलने की उम्र में इनसे हाड़तोड़ काम करवाते हैं। आईपीसी में ऐसे लोगों के लिए जेल तक का इंतजाम है। बालश्रम अधिनियम के तहत बच्चों से काम लेते पकड़े जाने पर फाइन के अलावा नियमानुसार जेल तक का प्रावधान है। इतने के बाद भी बच्चों से काम लेना बंद नहीं हो रहा है।