- सार्वजनिक रास्ते से अवैध निर्माण हटाने को लेकर 1978 में दायर किया था मुकदमा

न्याय में देरी की एक कहानी का एक अध्याय महिला ललिता के साथ जुड़ गया है। वह अपने अधिकारों को पाने के लिए 43 साल तक कोर्ट में मुकदमा लड़ी। उसे अब जाकर न्याय मिला है। इस लड़ाई को लड़ते-लड़ते वह बूढ़ी हो चली है।

महिला ने 1978 में सार्वजनिक रास्ते में अवैध निर्माण हटाने को लेकर कोर्ट में मुकदमा दायर किया। इसके बाद कोर्ट के चक्कर लगाने का जो सिलसिला शुरू हुआ। वह अब जाकर थमा है। महिला के 43 साल के संघर्ष के बाद द्रुतगामी न्यायालय के न्यायाधीश प्रमोद कुमार गिरि ने सार्वजनिक रास्ते पर किए अवैध निर्माण को 30 दिन में हटाने का आदेश देते हुए रास्ते को पूर्ववत कायम करने का विपक्षियों को आदेश दिया है। आदेश का पालन न करने पर न्यायाधीश ने कहा है कि मुकदमे की वादिनी को हक व अधिकार होगा कि वह निर्माण को न्यायालय द्रुतगामी न्यायालय के न्यायाधीश प्रमोद कुमार गिरि ने सार्वजनिक रास्ते पर किए अवैध निर्माण को 30 दिन में हटाने का आदेश देते हुए रास्ते को पूर्ववत कायम करने का विपक्षियों को आदेश दिया है। आदेश का पालन न करने पर न्यायाधीश ने कहा है कि मुकदमे की वादिनी को हक व अधिकार होगा कि वह निर्माण को जरिए न्यायालय हटवा दे।

जमीन बेचने से शुरू हुई कहानी

चंदुआ-छित्तुपुर (हबीबपुरा) निवासी स्व। रामनारायण ने अपनी जमीन का कुछ हिस्सा दस जनवरी 1962 को सूरमा चटर्जी को बेचा था। सात साल बाद सूरमा चटर्जी ने जमीन कई लोगों को बेच दी। बची हुई जमीन में से कुछ भाग को ललिता देवी को दो मई 1975 को बेचा। बाद में रामनारायण के पुत्रों बद्री प्रसाद व विजय प्रसाद ने उस क्षेत्र की अपनी जमीन पर प्ला¨टग करते हुए कई और को बेचा। इन प्लाटों के बीच से पीएनटी कालोनी की रोड से कायमशुदा रास्ता पूरब से पश्चिम दिशा की ओर जाता था। उसको नक्शा नजरी में दिखाया गया था। प्लाट होल्डरों के घर पर आने-जाने वालों एवं सवारी गाडि़यों के आवागमन को एकमात्र रास्ता है, लेकिन बद्री प्रसाद, विजय प्रसाद और परिवारीजन ने रास्ते पर दो जगह दीवार खड़ी करके अवैधानिक तरीके से दरवाजा कायम कर लिया। इससे आवागमन बंद हो गया। काफी प्रयास के बाद जब कोई बात नहीं बनी तो ललिता देवी ने कोर्ट की चौखट का दरवाजा खटखटाया और यहीं से उनके संघर्ष की कहानी शुरू हुई।

1978 में कोर्ट में दायर की अपील

न्याय पाने के लिए छह नवंबर 1978 को सिविल कोर्ट (मुंसिफ शहर) की अदालत में मुकदमा दायर किया। न्यायालय ने सुनवाई करते हुए आठ मई 1981 को मुकदमे को निरस्त कर दिया। ललिता देवी ने साक्ष्य पेश करने का अवसर दिए बगैर मुकदमे का निस्तारण किए जाने की बात कहते हुए मुंसिफ शहर न्यायालय के निर्णय के खिलाफ जिला जज की अदालत में सिविल अपील दायर की। अपर जिला जज (तृतीय) ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने और पत्रावलियों को देखने के बाद छह नवंबर 1981 को सिविल अपील को स्वीकार करते हुए मुंसिफ शहर कोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया और पुन: सुनवाई करने के लिए पत्रावली को उसी अदालत में भेजने का आदेश दिया। अपर जिला जज के निर्णय से असंतुष्ट होकर प्रतिवादी बद्री प्रसाद एवं अन्य ने हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने अपर जिला जज (तृतीय) के निर्णय को निरस्त कर सिविल अपील में उठाए गए ¨बदुओं पर नए सिरे से निर्णीत करने का अदालत को निर्देश दिया।

दोबारा चला सिविल कोर्ट में केस

हाईकोर्ट के इस आदेश के बाद ललिता देवी की ओर से दाखिल सिविल अपील पर सत्र न्यायालय में सुनवाई होने लगी। सुनवाई के दौरान ललिता देवी की ओर से अपने कथन के समर्थन में दस्तावेज प्रस्तुत किए गए। इस दौरान नगर निगम (नगर महापालिका) व विकास प्राधिकरण के अभियंताओं समेत गवाहों की अदालत में बयान दर्ज किए गए। प्रतिवादी पक्ष द्वारा मुकदमे (दावा) की वैधानिकता पर प्रश्न उठाए गए और दलील दी गई कि कथित विवादित क्षेत्र में कोई रास्ता था ही नहीं। ललिता देवी की ओर से दायर मुकदमा को निराधार बताते हुए दावा प्रस्तुत करने के अधिकार को चुनौती दी। द्रुतगामी न्यायालय के न्यायाधीश प्रमोद कुमार गिरि ने वर्षों से लंबित सिविल अपील पर कई दिनों तक दोनों पक्षों की दलीलों को सुना और साक्ष्यों का अवलोकन कर ललिता देवी के पक्ष में निर्णय सुनाया।