देहरादून ब्यूरो। उत्तराखंड फॉरेस्ट्री एंड हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी के प्रो। एसएपी सती ने क्लाइमेट चेंज का पहला संकेत हम अनियमित बारिश के रूप में देख रहे हैं। यह आप बारिश का आंकड़ा देखें तो वर्षभर में अब भी उतनी ही बारिश हो रही है, जितनी आमतौर पर होती है, लेकिन अब बारिश का पैटर्न बदल गया है। वर्ष के ज्यादातर दिनों में सूखे की स्थिति रहती है और कुछ दिन इतनी तेज बारिश होती है कि भारी नुकसान होता है।

जेसीबी के ड्राइवर इंजीनियर
प्रो सती ने कहा वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य स्थापना के बाद से सबसे ज्यादा निर्माण सड़कों का हुआ है। वर्ष 2000 में राज्य में 8000 किमी सड़कें थी जबकि आज 45000 किमी हैं। उन्होंने कहा कि सड़कें बननी चाहिए, लेकिन उत्तराखंड का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यहां सड़कों का इंजीनियर जेसीबी ड्राइवर होता है। कोई स्थानीय ठेकेदार अलाइनमेंट करता है और जेसीबी का ड्राइवर अपनी सुविधानुसार रोड बना देता है। इसके अलावा सड़क बनाने में निकाला सारा मक नदियों में डंप किया जाता है, जिससे हाल के वर्षों में नदियों के मारक क्षमता बढ़ी है।

तेजी से मेल्ट हो रहे ग्लेशियर
वाडिया इंस्टीट्यूट के रिटायर्ड जियोलॉजिस्ट डीपी डोभाल ने कहा कि ग्लेशियर को हम सिर्फ पानी के स्रोत के रूप में देखते हैं। लेकिन वास्तव में ग्लेशियर पूरे क्षेत्र में जलवायु को संतुलित बनाये रखने में भी मदद करते हैं। उन्होंने कहा कि अत्यधिक मानव हस्तक्षेप के कारण हिमालयी ग्लेशियर तेजी से मेल्ट हो रहे हैं और यह भविष्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।

तय करनी होगी लिमिट
पर्यावरणविद् और क्लाइमेट एक्टिविस्ट हेमंत ध्यानी ने कहा कि यदि हिमालय और उत्तराखंड का बचाना है कि हमें विकास की और टूरिस्ट की एक लिमिट निर्धारित करनी होगी। उन्होंने कहा कि सड़कें बनाने के लिए हो या फिर चारधामों और टूरिस्ट प्लेसेज पर टूरिस्ट की संख्या हो, हमें एक लिमिट तय करनी होगी। हम इसी तरह अनलिमिट विकास करते रहे और अनलिमिट टूरिस्ट संवेदनशील क्षेत्रों में जाते रहे तो हिमालय को बहुत लंबे समय तक बचा पाना संभव नहीं होगा।

कई वैज्ञानिकों ने रखे विचार
क्लाइमेट टॉक का संचालन आयुष जोशी ने किया। प्रो। हर्ष डोभाल, प्रो। कुसुम अरुणाचलम, सिद्धार्थ अग्रवाल के अलावा विजय प्रताप सिंह, राहुल कोटियाल आदि ने भी हिमालय और उत्तराखंड को बचाने को लेकर अपने विचार रखे।