नहीं मिलती हैं books

गुरु द्रोण की नगरी देहरादून बुक्स के मामले में गरीब है। ऐसा भी नहीं कि यहां बुक्स की शॉप्स की कमी है। ऐस्लेहॉल, पल्टन बाजार व डिस्पेंसरी रोड समेत दून के कई अन्य इलाकों में बुक्स की कई दुकानें हैं। इंग्लिश लिट्रेचर से लेकर यहां बाकी सभी तरह की बुक्स मिल जाएंगी, लेकिन बात जब राष्ट्रीय भाषा हिंदी, संस्कृत या फिर भाषा विज्ञान की आती है तो किताब विक्रेता मुंह ताकने लगते हैं। वजह है कि इन सब्जेक्ट्स की बुक्स यहां नहीं मिलती हैं। नाममात्र को इन सब्जेक्ट्स से रिलेटिड जो बुक्स हैं भी वो किसी काम की नहीं हैं।

दूसरे शहरों का करना पड़ता है रुख

ऐसा भी नहीं है कि दून में इन सब्जेक्ट्स के स्टूडेंट्स नहीं हैं। सच तो यह है कि दून स्थित सभी महाविद्यालयों में इन सब्जेक्ट्स में पीजी की क्लासेज संचालित होती हैं। इनके अलावा यहां गढ़वाल यूनिवर्सिटी समेत देश के विभिन्न महाविद्यालयों से इन सब्जेक्ट्स में रिसर्च करने वालों की भी कोई कमी नहीं है, लेकिन इन सब्जेक्ट्स की बुक्स न मिलने के चलते उन्हें मजबूर होकर दूसरे शहरों का रूख करना पड़ता है। दून के किताब विक्रेताओं का साफ कहना है कि अगर आपको इन सब्जेक्ट्स की बुक्स चाहिए तो इलाहाबाद से मंगानी पड़ेंगी। या फिर दिल्ली के चावड़ी बाजार और दरियागंज जैसे इलाकों की खाक छाननी पड़ेगी।

नेट पर भी उपलब्ध नहीं

हिंदी, संस्कृत या फिर भाषा विज्ञान के स्टूडेंट्स के लिए एक बड़ी परेशानी की बात यह भी है कि इन सब्जेक्ट्स से रिलेटिड मैटर इंटरनेट पर भी नहीं मिल पाता। सारी मुश्किलों का हल कहे जाने वाला इंटरनेट भी इन विषयों की खोज में हाथ खड़े कर देता है, जिससे स्टूडेंट्स की प्रॉब्लम्स और बढ़ जाती है। ऐसे में रही सही कसर सिटी के बुक सेलर होथ खड़े करके कर देते हैं। कहने को तो दून के सभी महाविद्यालयों में स्टूडेंट्स की हेल्प को लाइब्रेरी भी मौजूद हैं, लेकिन उनका होना या न होना बराबर ही है। इन लाइब्रेरीज में हिंदी, संस्कृत और भाषा विज्ञान की किताबें तो बहुत दूर की बात हैं, बल्कि अन्य दूसरे सब्जेक्ट्स की बुक्स तक नहीं मिलती हैं।

हिंदी को सीरियसली पढऩे वाले ही खत्म हो गए हैं। आज 90 परसेंट स्टूडेंट्स इंग्लिश लिट्रेचर को लाइक करते हैं। इसके अलावा स्टूडेंट्स में टेक्स्ट बुक्स की डिमांड भी नहीं रही है। अब अगर डिमांड ही नही होंगी तो बुक्स को कौन और किसके लिए रखेगा।

- राजीव आनंद, बुक सेलर

ऐसा नहीं है कि सभी कॉलेजेज में इन बुक्स की कमी है। लाइब्रेरीज में कई बुक्स हैं जो काफी हेल्पफुल हैं। हां, यह बात अलग है कि इन्हें पढऩे वाले काफी कम हो गए है। जो हैं वो रेफरेंस बुक की जगह गाइड को पसंद करते हैं।

-डा। राखी उपाध्याय, एसोसिएट प्रोफेसर, डीएवी पीजी

पीएचडी लगभग पूरी हो गई है सिर्फ वायवा बाकी है। रिसर्च स्टार्ट करने के टाइम पर सिटी ही नहीं बल्कि पूरे स्टेट में कहीं नहीं मिली। बुक्स के लिए दिल्ली के ही चक्कर लगाने पड़े थे। रिसर्च तो पूरी हो गई, लेकिन यहां एक बात जरूर सामने आई कि दून में हिंदी को हाल बहुत खराब हैं।

- उमा शर्मा, शोधार्थी

अभी एंट्रेंस की तैयारी कर रही हूं, लेकिन यहां बुक्स ही नहीं मिल रही प्रिपरेशन के लिए। बुक सेलर भी कहते हैं तो सिलेबस आप ढूंढ रही है वो या तो इलाहाबाद में मिलेगा या बनारस। अब एक किताब के लिए कैसे कोई इतनी दूर जाएगा।

- ईशा रानी, स्टूडेंट

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