मुझे आत्मा के अस्तित्व से जुड़ा कोई बहुत ही सरल, लेकिन बेहद प्रभावशाली सबूत दें। अशोक मिश्रा, कानपुर

आत्मा के अस्तित्व से जुड़े बहुत से सबूत हैं। अगर हम यह कहते हैं कि कोई आत्मा है ही नहीं, तो इसका अर्थ यह होगा कि हम सभी महज हमारे शरीर हैं। लेकिन इसके बारे में सोचिए। हमारे पूरे जीवनकाल में हमारे शरीर में लगातार बदलाव आते रहते हैं। आज आपके शरीर का जो स्वरूप है, उसका उस शरीर से कोई वास्ता नहीं है, जो एक नौजवान के रूप में आपके पास था। लेकिन जब आप 5 वर्ष के थे, तब भी स्वयं को 'मैं' कहते थे, उसके बाद जब आप 10, 15 या 20 वर्ष के हुए, तब भी स्वयं को 'मैं' ही कहते थे। आज भी आप स्वयं को 'मैं' कहते हैं। जबकि शरीर का स्वरूप बदल चुका है। आज आपके शरीर में ऐसा एक भी सेल नहीं है, जो तब भी था जब आप एक नौजवान थे। तो वो 'मैं' क्या है? कहां है? आप अपने बचे हुए जीवन में भी स्वयं को 'मैं' ही कहेंगे, जबकि आपके शरीर और उसके प्रत्येक हिस्से में निरंतर बदलाव आता जाएगा। तो 'मैं' क्या है? वो क्या है, जो स्थाई और अनुरूप है? वो केवल आत्मा है।

यदि मनुष्य एक-दूसरे की हत्या करते हैं, तो यह पाप है; उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। लेकिन, पशु भोजन के लिए अन्य पशुओं को मारे बिना नहीं जी सकते। इस पर आपका क्या कहना है? हम आपकी राय जानने के लिए उत्सुक हैं। मंजीत, देहरादून

हां बिल्कुल, मांसाहारी पशु भोजन के लिए एक-दूसरे को मारते हैं। यह प्रकृति के चक्र का हिस्सा है। लेकिन, मनुष्य पशु नहीं है। मनुष्य में शारीरिक विकास के साथ आध्यात्मिक विकास भी होता है। सबसे पहले तो, मनुष्यों को भोजन के लिए पशुओं को मारने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमें मांसाहारी नहीं बनाया गया है। हमारा शरीर मांसाहार के लिए नहीं बना है। यही कारण है कि मांसाहारी लोगों का स्वास्थ्य खराब रहता है।

जब हम अपने साथी मनुष्यों के प्रति हिंसक होते हैं, तो हमारा मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य खराब होने लगता है। जिसका आशय है कि हम जानवरों की तरह अपने क्रोध और इच्छाओं के गुलाम हैं। अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहने से मनुष्य आध्यात्मिक विकास के शिखर पर पहुंचता है। हमारे अंदर सही और गलत में भेद करने की क्षमता है। अगर हम उस क्षमता का उपयोग नहीं करते, तो हम पशुओं से भी बद्तर हैं।

— साध्वी भगवती सरस्वती

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