प्रश्न: सत्य को सभी संतों ने, बुद्ध पुरुषों ने अपने अंदर ही पाया, फिर कहीं भी बाहर समर्पण पर इतना जोर क्यों दिया गया है? अपने स्वभावानुसार या भटक कर शायद कभी कहीं और सत्य की झलक मिल भी जाए, पर बाहर तो अंधे गुरु भी मौजूद हैं जो रात को दिन और दिन को रात कहेंगे?

इसे समझना जरूरी है। समर्पण बाहर होता ही नहीं, समर्पण भीतर की घटना है। गुरु बाहर हो; समर्पण भीतर की घटना है। समझो, तुम किसी के प्रेम में पड़ गए तो प्रेमी तो बाहर होता है; लेकिन प्रेम तो तुम्हारे भीतर की घटना है, वह तो तुम्हारे हृदय में जलता है। प्रेमी मर भी जाए तो भी प्रेम जारी रह सकता है; जारी रहेगा ही, अगर था। प्रेमी की राख भी न बचे तो भी प्रेम अहर्निश गूंजता रहेगा। धड़कन-धड़कन में श्वास-श्वास में बहता रहेगा। प्रेम-पात्र तो बाहर होता है, प्रेम भीतर होता है।

समर्पण का पात्र तो बाहर होता है, गुरु बाहर होता है, लेकिन समर्पण तो भीतर होता है। वह घटना बाहर की नहीं है। और गुरु भी तभी तक बाहर दिखाई पड़ता है, जब तक हमने समर्पण नहीं किया। जिस दिन तुमने समर्पण किया, गुरु भी भीतर है। बाहर-भीतर का भेद ही गिर गया, सीमा ही टूट गई। समर्पण करते ही, जैसे ही तुमने अपनी सुरक्षा की दीवार तोड़ दी, सब तरह से गुरु तुम्हारे भीतर बह आता है। इसलिए तो हमने गुरु को परमात्मा कहा है और भीतर छुपी आत्मा को परम गुरु कहा है।

जब तक शिष्य समर्पित नहीं है, तब तक गुरु बाहर है। वस्तुत: तब तक गुरु गुरु ही नहीं है, इसलिए बाहर है। तुम क्या सोचते हो, तुम्हारे समर्पण के पहले कोई गुरु हो सकता है? अगर तुम सच में ही समर्पण कर दो तो तुम्हें कोई गुरु भटका नहीं सकता। वस्तुत: सच्चाई तो यह है कि अगर समर्पण करनेवाला शिष्य मिल जाए तो भटका हुआ गुरु भी रास्ते पर आ जाएगा। समर्पण इतनी बड़ी घटना है! जब तुम्हें रास्ते पर ला सकता है, समर्पण, तो गुरु को भी ला सकता है।

लेकिन कठिनाई ऐसी है कि सदगुरु को भी शिष्य नहीं मिलते, असदगुरु को शिष्य मिलना तो बहुत मुश्किल है। अनुयायियों की बात नहीं कर रहा हूं, शिष्य की बात कर रहा हूं- जिसको नानक ने सिख कहा है। सिख शिष्य का अपभ्रंश है। जब तुम्हारे भीतर शिष्यत्व का भाव जन्मता है, तब कोई तुम्हारे लिए गुरु होता है। और अगर तुम्हारा समर्पण पूरा हो तो तुम बिल्कुल फिक्र ही छोड़ दो कि गुरु कुगुरु है, कि सदगुरु है, कि क्या है। तुम चिंता ही छोड़ो। समर्पण इतनी बड़ी घटना है कि वह तुम्हें तो बदलेगी ही, उस गुरु को भी बदल डालेगी। समर्पण का मतलब है अटूट श्रद्धा। समर्पण का अर्थ है बेशर्त आस्था। समर्पण का अर्थ है, गुरु कहे, मरो तो मरने की तैयारी; जीओ तो जीने की तैयारी।

क्या तुमने इतना बुरा आदमी दुनिया में देखा है, जो अटूट श्रद्धा को धोखा दे सके? अखंड श्रद्धा को धोखा देने वाला आदमी कभी पृथ्वी पर हुआ ही नहीं। हां, अगर तुम्हें कोई धोखा दे पाता है तो इसलिए, कि तुम्हारी श्रद्धा अखंड नहीं। तुम भी बेईमान, गुरु भी बेईमान। तुम भी रत्ती-रत्ती देते हो, वह भी समझता है कि तुम कैसे दे रहे हो; वह भी छीनने की कोशिश करता है। और तुम सोचते हो कि यह गुरु बेईमान है, ठीक गुरु नहीं है, भटका देगा; अगर समर्पण किया तो भटक जाएंगे। तुम समर्पण नहीं करना चाहते; तुम हजार बहाने खोजते हो। तुम डरे हो। और तब तुम पक्का समझो कि तुम्हें सदगुरु तो मिलनेवाला ही नहीं है। तुम्हारे भीतर का यह जो संदेह है, यह तुम्हें किसी असदगुरु से ही मिला सकता है।

संदेह का और असदगुरु का मिलना हो सकता है। श्रद्धा और असदगुरु का मिलना होता ही नहीं। तुम कभी किसी पर श्रद्धा करके तो देखो। श्रद्धा बड़ी क्रांतिकारी कीमिया है। जिस पर तुम श्रद्धा करोगे उसे तुम बदलना शुरू कर दोगे। छोटे बच्चे घर में पैदा होते हैं, मां-बाप को बदल देते हैं। छोटा बच्चा भी इतना छोटा नहीं है जितना श्रद्धा से भरा हुआ शिष्य होता है। उसकी सरलता का तो मुकाबला ही नहीं है। तुम उस भय को छोड़ो। तुम यह चिंता ही मत करो। तुम सिर्फ समर्पण की फिक्र करो। अगर तुम समर्पण कर सकते हो तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम पत्थर के प्रति भी समर्पण कर दो, तो भी क्रांति घटेगी।

ओशो।

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