दंबोद्भव को सूर्य का वरदान, सहस्र कवच बना

त्रेता युग में एक असुर दंबोद्भव की तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्य ने उससे वरदान मांगने को कहा तो उसने अमरत्व की इच्छा जताई. सूर्य ने उसकी मंशा समझ कर ऐसा वरदान देने से मना कर दिया. तो उसने कहा कि मुझे एक हजार कवच का वरदान दीजिए साथ ही जो भी मेरे किसी कवच को तोड़े तो तुरंत उसकी मौत हो जाए. मेरा एक कवच वही तोड़ पाए जिसने कम से कम एक हजार वर्ष की तपस्या की हो. सूर्य के पास अब उसे वरदान देने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा. जैसा सूर्य ने सोचा था वैसा ही हुआ. दंबोद्भव अपने को एक तरह से अमर मानकर अत्याचार करने लगा.

दो शरीर एक जान नर-नारायण का जन्म

दक्ष प्रजापति ने अपनी बेटी मूर्ति का विवाह ब्रह्मा के मानस पुत्र धर्म से कर दिया. मूर्ति ने सहस्र कवच का नाम सुन रखा था. सो उसने भगवान विष्णु से उसके वध के लिए प्रार्थना की. विष्णु ने आश्वासन दिया. कालांतर में मूर्ति ने नर और नारायण नाम के दो बच्चों को जन्म दिया इनका शरीर तो दो था लेकिन उनमें एक ही जान थी. विधि ने बड़ी ही चतुराई से उस असुर को मारने का प्लान किया था. इन दोनों ने उस प्लान पर काम करना शुरू कर दिया.

सूर्य ने बचा लिया सहस्र कवच को

दोनों ने एक हजार साल तपस्या की और सहस्र कवच को युद्ध के लिए ललकारा. नर ने उसका एक कवच तोड़ा और उसकी मृत्यु हो गई. इधर नारायण ने भगवान शिव की तपस्या करके संजीवनी मंत्र सीखा था तो उसने नर को जीवित कर दिया. इसी तरह बारी-बारी से दोनों ने मिलकर सहस्र कचव के 999 कवच तोड़ दिए. अब सहस्र कवच समझ चुका था कि उसकी मृत्यु तय है. वह भागकर सूर्य की शरण में पहुंच गया. नर-नारायण उसे मारने सूर्य लोक पहुंचे तो सूर्य ने सहस्र कवच को उन्हें सौंपने से इनकार कर दिया. तब नारायण ने सूर्य को श्राप दिया कि इसे बचाकर आप भी पाप के भागीदार हो गए हैं और आपको भी इसका कर्मफल भुगतना पड़ेगा.

सहस्र कवच और सूर्य के अंश कर्ण

द्वापर युग में उसी एक बचे हुए कवच के साथ सूर्य पुत्र कर्ण का जन्म हुआ. कवच के रहते वह भी अजेय थे. उन्हें कोई मार नहीं सकता था. दरअसल नर-नारायण से उलट उनका एक शरीर था लेकिन उनमें दो आत्माएं थीं एक सूर्य की दूसरी सहस्र कवच दंबोद्भव की. यही वजह थी कि सूर्य और सहस्र कवच के बुरे कर्मों का फल उस कर्ण के शरीर को भुगतना पड़ा. कर्ण ने अपने अच्छे कर्मों और सूर्य के प्रताप के बल पर दुनिया में महादानी के नाम से विख्यात हुए. लेकिन सहस्र कवच दंबोद्भव के बुरे कर्मों का असर खत्म नहीं कर सके. बुरे कर्मफल के तहत ही कुंती ने उन्हें पैदा होते ही लोकलाच के भय से नदी में बहा दिया. सूर्य पुत्र होने के बावजूद उन्हें सूतपुत्र के नाम से बुलाया गया. उनका अपमान भी किया गया.

नर-नारायण रूपी अर्जुन और कृष्ण

सहस्र कवच दंबोद्भव और सूर्य को उनके पापों का दंड देने के लिए द्वापर युग में अर्जुन और श्रीकृष्ण के रूप में नर-नारायण ने जन्म लिया और कर्ण का वध किया. चूंकि कर्ण का कवच तोड़ने पर अर्जुन की मृत्यु हो जाती इसलिए इंद्र ने कर्ण से कवच दान में मांग लिया. इस तरह एक बुरे कर्मों वाले असुर को दंडित करने में हजारों वर्ष लग गए. इसके लिए कई बार नर-नारायण को जन्म मरण से गुजरना भी पड़ा लेकिन बुराई को दंडित करके खत्म कर दिया गया. कर्म के अनुसार फल मिलता है और फल अच्छा हो तो सुख और बुरा हो तो न्याय के अनुसार दंड

का विधान है, जिसे देर-सबेर हर हाल में भुगतना पड़ता है.