बैंगलोर में अपनी छोटी-बड़ी कार से उतरकर किसी खाली जगह पर कूड़े से भरे बैग फेंकते हुए लोगों का नज़र आ जाना सामान्य बात है.

बृहत बैंगलोर महानगर पालिका (बीबीएमपी) के अधिकारी उस जगह की सफ़ाई करके उस जगह को घेर देते हैं. लेकिन अगले ही दिन वहाँ फिर कूड़े का ढेर लगा नज़र आता है.

इन बैगों में गीला कूड़ा (रसोई से निकलने वाला कूड़ा या जैव कूड़ा) और सूखा कूड़ा (प्लास्टिक की बोतलें, काग़ज़) एक साथ ही भरा होता है. नतीजन, यही कूड़ा शहर के बाहरी इलाक़ों में ज़मीन भराव के लिए ले जाया जाता है

आज स्थिति यह है कि बैंगलोर शहर से 40 किलोमीटर दूर स्थित मंडूर में कूड़े के पहाड़ खड़े हो चुके हैं.

पेशे से वकील शिव कुमार बीबीसी हिन्दी से कहा, "क़रीब दस साल पहले, यहाँ तीन-चार ट्रक कूड़ा आया करता था. अब, क़रीब 600 या उससे भी ज़्यादा ट्रकों में 1,000 से 1,500 टन कूड़ा यहाँ आता है. हवा प्रदूषित हो चुकी है, पानी प्रदूषित हो चुका है. हम पीने का पानी ख़रीदने को मज़बूर हो गए हैं, 20 लीटर पानी के लिए हमें 40 रुपए देने होते हैं. कूड़े की बदबू इतनी तेज़ है कि यहाँ रहना मुश्किल हो गया है."

गाँव वालों का विरोध प्रदर्शन

भारत के सिलिकॉन वैली के सामने कचरे का पहाड़

बुधवार को पुलिस को मंडूर के गाँव वालों को विरोध स्वरूप शहर अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे को जानी वाली सड़क को जाम करने से रोकने के लिए निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी.

मंडूर में एक कूड़ा निस्तारण प्लांट तैयार तो है लेकिन इसका एनर्जी प्लांट आर्थिक कारणों से अभी अधूरा ही है. सरकार ने इसके निर्माण का ठेका जिस एक निजी कंपनी को दिया था.

समाज का शिक्षित तबक़ा भी सूखे कूड़े और गीले कूड़े को अक्सर अलग क्यों नहीं करता? सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के विशेषज्ञ एनएस रमाकांत से जब हमने यही पूछा तो उनका कहना था, "भारतीय में निजी सामाजिक ज़िम्मेदारी का अभाव होता है. यही भारतीय जब सिंगापुर और अमरीका जाते हैं तो वहाँ के नियमों का पालन करते हैं लेकिन अपने देश में नहीं करते."

बैंगलोर की जनसंख्या 90 लाख से ज़्यादा है और यहाँ 4,000 टन से ज़्यादा कूड़ा निकलता है. इसका क़रीब 60 प्रतिशत गीला कूड़ा होता है और बाक़ी सूखा कूड़ा. वहीं पश्चिमी देशों में यह अनुपात ठीक उलटा होता है. इसीलिए कर्नाटक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. वामन आचार्य और एनएस रमाकांत जैसे वैज्ञानिक मानते हैं कि पश्चिमी देशों में प्रचलित वेस्ट मैनेजमैंट की तकनीकी भारत के लिए उपयोगी नहीं है.

आचार्य कहते हैं, "यह केवल बैंगलोर की समस्या नहीं है. भारत के हर शहर में यह समस्या है. बैंगलोर को बस इसलिए गार्बेज सिटी कहना ग़लत होगा क्योंकि ये गार्डेन सिटी की तर्ज़ पर है. अगर तुलना की जाए तो यह दूसरे कई शहरों से अब भी काफ़ी साफ़ है. लेकिन आने वाले कुछ सालों में उच्च स्तर पर कोई निर्णय नहीं लिया गया तो यह सबसे गंदा शहर ज़रूर बन जाएगा. और यह काम केवल मुख्यमंत्री कर सकते हैं."

उच्च स्तर पर फ़ैसला लेने की ज़रूरत

भारत के सिलिकॉन वैली के सामने कचरे का पहाड़

बैंगलोर एजेंडा टास्क फोर्स (बीएटीएफ) के पूर्व सदस्य और फीडबैक कंसल्टिंग के प्रबंध निदेशक रवि चंदर कहते हैं, "आप कह सकते हैं कि शहर में एक कूड़ा माफिया सक्रिय है. ट्रांसपोर्टर और स्थानीय नेता नहीं चाहते हैं कि कूड़ा निस्तारण हो. अगर यह होने लगा तो ज़मीन भराव का ठेका मिलना बंद हो जाएगा."

डॉ. आचार्य भी रवि चंदर से सहमत हैं. वो कहते हैं, "इस गठजोड़ के कारण ही शहर की नगर महापालिका कुछ करने की स्थिति में नहीं है. वेस्ट मैनेजमेंट के प्लांट लगाने का प्रस्ताव बीबीएमपी या नगर पालिका नहीं दे सकती. यह फ़ैसला उच्च स्तर पर लिया जा सकता है."

चंदर कहते हैं, "मेरा यकीन कीजिए, अगर ऐसा होता है तो बैंगलोर पूरे देश में एक उदाहरण बनेगा."

कर्नाटक के मुख्यमंत्री के सिद्धारमैया ने बीबीसी हिन्दी से कहा, "मंडूर में कूड़ा फेंकने को रोकने में अभी चार से पाँच महीने लगेंगे. हम एक एनर्जी प्लांट लगाएंगे."

चंदर कहते हैं, "इसका उपाय सब जानते हैं. लेकिन इसपर अमल करने के लिए न तो राजनीतिक इच्छाशक्ति है और न ही प्रशासकीय नीयत. दुर्भाग्यवश, बैंगलोर को जगाने के लिए शायद सूरत जैसे किसी मामले की ज़रूरत है."

कुछ दशक पहले सूरत बुरी तरह प्लेग का चपेट में आ गया था. उसेक बाद वहाँ एक कूड़ा निस्तारण संयत्र लगाया गया, जो पूरी तरह सफल रहा.

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