- देश के जाने-माने लेखकों ने राजनीति और चुनाव पर की बात

- लेखकों पर भी उठाए सवाल, कहा इतने लाचार पहले कभी नहीं दिखे लेखक-कवि

PATNA : समय चुनाव का है। मरखंडे बयान-विवाद का है। खबरों में बने रहने की तिकड़म का है। किसी को मुसलमानों के वोट बैंक की चिंता है तो किसी को चिंता है रिजर्वेशन के भूत को जगाकर वोट बटोरने की। कोई पाकिस्तान भेजेगा अपने आका के विरोधियों को तो कोई धमकी दे रहा है विरोध कइले समझ लीहें। इशारे में समझ लें बात। ऐसे समय में शहर की राजनीति से अलग लेकिन उसमें घुसती जानदार बहस शुरू हुई। बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान का आयोजन तो बहाना था। असली मकसद लेखकों की ओर से इस चुनाव में अपनी मौजूदगी का अहसास कराने का था। पटना और पटना के बाहर के चर्चित और बड़े लेखकों ने अपनी बात खुलकर रखी।

राष्ट्रपति प्रणाली की ओर देश

राष्ट्रीय स्तर के कवि अरुण कमल आम तौर पर सौम्य कवि माने जाते हैं। लेकिन जब बात सांस्कृतिक प्रतिरोध का संकट और हमारी भूमिका पर शुरू हुई तो उन्होंने लंबा वक्तव्य दिया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि सांप्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद सभी पूंजीवाद के पक्ष में ही हैं। मुलायम, लालू, मायावती, ममता बनर्जी क्या हैं? कम्युनिस्ट पार्टी ने क्या किया? कभी इस पार्टी के साथ तो कभी उस पार्टी के साथ। अभी नरेन्द्र मोदी बरअख्त राहुल गांधी क्या हैं? राष्ट्रपति प्रणाली की ओर देश को ले जाया जा रहा है। जयप्रकाश आंदोलन के जड़ में दिखता है आज का माहौल। अमेरिका का समर्थन था उन्हें, सोवियत संघ का विरोध भी किया था जेपी ने। अरुण कमल ने बिहार सरकार को निशाने पर लिया। कहा, बिहार सरकार क्या गरीबों के पक्ष में है? भूमि सुधार से जुड़ी डी। बंधोपाध्याय समिति का क्या हुआ? उसकी रिपोर्ट का क्या हुआ? उन्होंने लेखकों पर भी सवाल दागा और लेखक संघों पर भी हमला बोला। कहा प्रलेस, जलेश को क्या हो गया है? विकल्प बनाने से बनता है। आप कैसे लेखक हैं? आप सिर्फ पुरस्कारों, पद के बारे में सोचेंगे तो देश के बारे में कौन सोचेगा? कहां हैं सारे क्रांतिकारी लेखक? सेक्यूलरिज्म गुजरात में जरूरी है तो कश्मीर में भी जरूरी है, पाकिस्तान में क्यों हिन्दुओं को मारा जा रहा है, म्यांमार और श्रीलंका में क्या हो रहा है? अरुण कमल ने कहा कि लेखकों ने मिलकर एक जुलूस तक नहीं निकाला।

एक नहीं हो पा रहे हैं कोई

संजीव राष्ट्रीय स्तर के कहानीकार हैं। हंस जैसी साहित्य की बड़ी पत्रिका से जुड़े रहे हैं। वे कहते हैं देश कंफ्यूज्ड स्थिति में है। विकल्प बनाने की कोशिश नहीं है। शिथिलता ने फासीवाद को मजबूत किया है। राजनीति में एक झूठ हजार बार बोला जा रहा है। कांग्रेस स्वयं जिम्मेवार है। नीतीश, लालू, मायावती सभी किसी न किसी पर घोटाले के आरोप हैं। हमलोगों ने आम आदमी पार्टी के लिए सोचा। लेकिन उसे हमारी जरूरत नहीं है। वामपंथ भी आत्ममुग्ध है। वह प्रतिरोध की शक्ति नहीं बनना चाहता। प्रलेस, जलेस और जसम जैसे संगठन एक नहीं हो पा रहे। मेरी दो-तीन कोशिशें फेल हुई।

म्ख् वर्षो में ऐसा समय नहीं आया

आलोक धन्वा भी हिन्दी के राष्ट्रीय स्तर के कवि हैं। आलोक धन्वा ने कहा कि हम ऐसे संकट में मिल रहे हैं जहां एक दूसरे को देखने भर से ही तसल्ली मिल रही है। म्ख् वर्षो के लोकतंत्र में ऐसा समय नहीं आया था। गणतंत्र की प्रभुसत्ता, राज्याभिषेक और कातिल का ढिंढोरा चल रहा है। अमेरिका का आखेट स्थल बन गया है देश। फासिस्टों के साथ कौन लेखक हैं? आलोक धन्वा ने लोगों से गर्मजोशी, नैतिक साहस और एकजुटता की अपील की।

कांग्रेज-बीजेपी की आर्थिक नीति एक

खगेन्द्र ठाकुर वरिष्ठ आलोचक हैं। वे मानते हैं कि किसी भी अतिवादी शक्ति का आना साहित्य से लिए नुकसानदेह है। बीजेपी सिर्फ सांप्रदायिक नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनी वाली पार्टी भी है। कांग्रेस-बीजेपी की आर्थिक नीति एक है। जनता की समस्याओं का समाधान चाहिए तो विकल्प विकसित करना होगा। लेखक आमतौर पर लेफ्ट माइंडेड होता है। लेकिन लेफ्ट भी एकजुट नहीं। उन्होंने जब लेफ्ट की तीन रोशनियों की बात की तो बीच में वरिष्ठ लेखक शेखर ने टोका। शेखर ने कहा रोशनी एक होती है और एक है। राजनीति करने वालों ने उसे बांट रखा है।

जनता के बीच जाएं लेखक

गीतकार के रूप में नचिकेता की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर है। वे कहते हैं कि लेखक की दखल समाज और राजनीति में इसलिए ऐसी हो गई है कि वह समाज से कट गया है। जिस समाज के लिए वह साहित्य लिखने का दावा करता है उसमें उसकी पैठ नहीं है। चूंकि आलोचक ही मान प्रतिष्ठा और पुरस्कार समितियों के निर्णायक होते हैं इसलिए सिर्फ और सिर्फ आलोचकों को खुश करने में लगे हैं लेखक। समाजहित की बात करनी है तो जनता के बीच जाएं लेखक।

हुड़दंग के बीच सभी चुप हैं

प्रो। सुरेन्द्र स्निग्ध कवि भी हैं और उपन्यासकार भी। वे मानते हैं कि पूरी बुद्धिजीवी बिरादरी अलग-थलग है। अराजकताओं का दौर है। इस शोर में बुद्धिजीवी मायने नहीं रखते। वामपंथ अप्रासंगिक हो गया है। राजनीति में एक हुड़दंग है और सारे लोग चुप्पी साधे हुए हैं। बुद्धिजीवी संशय में हैं, अवसरवाद के शिकार हैं।

देश की मूल प्रकृति सांप्रदायिक नहीं

रामधारी सिंह दिवाकर का मानना है कि आत्म घोषित माहौल बना दिया गया है। बुद्धिजीवी लेखक तो हाशिए पर चले गए हैं। वामपंथी पार्टियां चुप हैं। धर्मनिरपेक्ष ताकत पर भीषण खतरा है। देश की मूल प्रकृति सांप्रदायिक नहीं है।