पटना(ब्यूरो)। आज वल्र्ड ओलंपिक डे है। देश में ओलंपियन कई हुए लेकिन बिहार से कितने। अब तक सिर्फ एक ही नाम सामने है- शिवनाथ सिंह। 11 जुलाई, 1946 को बिहार के बक्सर जिले में इनका जन्म हुआ था। ये देश के जाने -माने एथलीट थे और 1976 में मांट्रियल ओलंपिक में भारत के एथलेटिक्स टीम का प्रतिनिधित्व किया और 11वां स्थान दिलाया। इसके अलावा भारत के कई राष्ट्रीय प्रतिष्ठित पुरस्कार से भी नवाजे गए। इस बात को 45 साल बीत गए हैं लेकिन बड़ा सवाल शिवनाथ के बाद अब कौन? आज 45 साल बाद भी किसी खिलाड़ी को ओलंपिक स्तर पर खेलते हुए देखने का बिहार का सपना अधूरा ही है। 12 करोड़ की आबादी वाले राज्य ने शिवनाथ सिंह के बाद कोई ओलंपिन नहीं देखा।

अब कोई ओलंपियन नहीं
कभी शिवनाथ सिंह के नाम पर गर्व से सीना चौड़ा करने वाले बिहार को एक दो साल नहीं बल्कि 45 साल से कोई ओलंपिक पदक विजेता तो दूर ओलंपिक में भाग लेने वाला खिलाड़ी नहीं मिल पाया है। लगभग 1 करोड़ की जनसंख्या वाले इस राज्य में दौड़ते तो काफी युवा हैं लेकिन सरकार या खेल प्राधिकरण अब जाकर जगी है। ओलंपिक की राह दिखाने की जहमत नहीं उठाई। वर्तमान में शहर से लेकर गांव तक हजारों युवा रोजाना दौड़ते हैं लेकिन किसी का सपना ओलंपिक में दौडऩा नहीं है। वह सिर्फ नौकरी पाना चाहते हैं।

अव्वल था बिहार
एक समय था जब बिहार को खेल में अव्वल माना जाता था। मोइनुल हक स्टेडियम के आसपास बसे लोग बताते हैं कि रवि शास्त्री जैसे दिग्गज क्रिकेटर इंजीनियरिंग कॉलेज की ओर से खेला करते थे। वहीं यहां का संजय गांधी स्टेडियम दुनिया के महान फिनिशरों में शुमार भारत के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के छक्कों का गवाह बनता था। दानापुर स्थित बिहार रेजिमेंट (बीआरसी) में दर्शकों की भीड़ मनोहर टोप्नो और सिलवानुस डुंगडुंग की हॉकी देखने आती थी। 1996 में मोइनुल हक विश्व कप मैच का गवाह बना।

विभाजन की टीस
समय बीता और बिहार का विभाजन हुआ। साल 2000 के बाद से बिहार और झारखंड अलग-अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आ गए। इसके साथ ही खेल और प्रतिभा दोनों - झारखंड के पाले में चले गए। धोनी आज झारखंड का मान बढ़ा रहे हैं तो हाल ही में क्रिकेट का चमकता सितारा माने जा रहे ईशान किशन ने भी बिहार की बजाए झारखंड से खेलने को तरजीह दी।

आपसी झगड़े में क्रिकेट हुआ बोल्ड
1999 में विभाजन के बाद झारखंड में तमाम क्रिकेट मैच हो रहे हैं वहीं बिहार में आपसी कलह ने खिलाड़ी तो दूर क्रिकेट को ही क्लीन बोल्ड कर दिया है। क्रिकेट का मुकाबला पिच से ज्यादा यहां अदालतों में खेला जा रहा है। हालांकि खिलाडिय़ों और कुछ क्रिकेट प्रेमियों की बदौलत बिहार ने रणजी में ठोस शुरूआत कर दी है। लेकिन अब भी घरेलु कलह कहीं न कहीं से क्रिकेट को परेशान कर रहे। वहीं एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट ग्राउंड बिहार में नहीं बचा।


हॉकी का हाल है बेहाल
बिहार के बंटवारे के बाद हॉकी तो जैसे झारखंड का ही खेल बन गया। बिहार में न तो खिलाडिय़ों के लिए उचित व्यवस्था है और न ही उनका भविष्य सुरक्षित। बीएमपी परिसर स्थित मैदान पर अभ्यास करने वाले खिलाडिय़ों से वह भी मैदान छिन गया। खिलाडिय़ों को अब भी एक अदद एस्ट्रो टर्फ का इंतजार है। दु:ख है कि जहां सभी बड़े टूर्नामेंट एस्ट्रो टर्फ पर ही कराए जा रहे हैं वहां बिहार के हॉकी खिलाडिय़ों को घास के मैदान पर अभ्यास के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। बकौल खिलाड़ी घास के मैदान पर अभ्यास का मुकाबला टर्फ पर होने वाले मैचों से नहीं किया जा सकता।

फुटबॉल खेलो अपने भरोसे
जहां एक ओर फीफा अंडर-17 की मेजबानी से भारत में फुटबॉल को संजीवनी मिली है। वहीं बिहार में फुटबॉल की स्थिति बड़ी दयनीय है। स्कूल-कॉलेजों में रूटीन के हिस्से तक सीमित फुटबॉल को जीवन देने के लिए एक उचित प्राधिकरण तक नहीं है। गूगल पर काफी खोज के बाद यहां एक फुटबॉल संघ का पता तो चलेगा लेकिन वहां के अधिकारियों को अब तक भारतीय फुटबॉल संघ के बारे में ही पूरी जानकारी नहीं है।