गोरखपुर (ब्यूरो). इस घटना में 172 लोगों को सेशन कोर्ट से फांसी की सजा हुई थी. बात जब कोर्ट में केस लडऩे की आई तो अच्छे-अच्छे वकीलों ने हाथ खड़े कर दिए. इसके बाद संत बाबा राघव दास ने मदन मोहन मालवीय से केस लडऩे के लिए कहा. मदन मोहन मालवीय तब तक वकालत छोड़ चुके थे, लेकिन बाबा राघव दास के कहने पर उन्होंने दोबारा काला कोट पहना. मदन मोहन मालवीय की ही देन है कि 172 में से 153 आंदोलनकारियों को मौत के फंदे से बचाया जा सका था.

14 को कारावास, पेंशन मिली दो को

14 आंदोलनकारी को आजीवन कारावास की सजा हुई. इसमें से चार को पेंशन स्वीकृत हुई. जबकि केवल दो आंदोलनकारियों के परिवार को पेंशन मिल रही है. वहीं, दस को आज तक पेंशन का हकदार नहीं माना गया.

19 को हुई फांसी, दो का पता नहीं

चौरीचौरा कांड में 19 आंदोलनकारियों को अलग-अलग जेलों में फांसी दी गई, लेकिन इनमे से दो आंदोलनकारी को कहां और कब फांसी हुई इसका रिकॉर्ड दीवानी न्यायालय में भी नहीं है.

कानपुर, इटावा में हुई फांसी

डॉ. कृष्ण ने कुछ हद तक इस बारे में भी पता लगाया है कि दो आंदोलनकारी को कहां पर फांसी हुई. डॉ. कृष्ण का अनुमान है कि आंदोलनकारी राम लगन कानपुर और सीताराम इटावा में बंद थे. वहीं पर उन्हें फांसी भी दी गई.

यहां हुई 17 आंदोलनकारियों को फांसी

- रघुबीर सुनार : 02 जुलाई 1923 कानपुर कारागार.

- संपत अहीर : 02 जुलाई 1923 इटावा कारागार.

- श्याम सुंदर मिसिर : 02 जुलाई 1923 इटावा कारागार.

- अब्दुल्ला : 03 जुलाई 1923 बाराबंकी कारागार.

- लाल मुहम्मद सेन : 03 जुलाई 1923 रायबरेली कारागार.

- लवटू कोहार : 03 जुलाई 1923 रायबरेली कारागार.

- मेघू उर्फ लाल बिहारी : 04 जुलाई 1923 आगरा कारागार.

- नजर अली : 04 जुलाई 1923 फतेहगढ़ कारागार.

- भगवान अहीर : 04 जुलाई 1923 अलीगढ़ कारागार.

- रामरूप बरई : 04 जुलाई 1923 उन्नाव कारागार.

- महादेव : 04 जुलाई 1923 बरेली कारागार.

- कालीचरन : 04 जुलाई 1923 गाजीपुर कारागार.

- बिकरम अहीर : 05 जुलाई 1923 मेरठ कारागार.

- रुदली केवल : 05 जुलाई 1923 प्रतापगढ़ कारागार.

- संपत : 9 जुलाई 1923 में झांसी कारागार.

- सहदेव : 9 जुलाई 1923 झांसी कारागार.

- दुधई भर : 11 जुलाई 1923 जौनपुर कारागार.

फैक्ट फिगर

1000 आंदोलनकारी पकड़े गए थे.

228 आंदोलनकारियों पर मुकदमा चला

172 आंदोलनकारियों को सेशन कोर्ट से फांसी

19 हाईकोर्ट से आंदोलनकारियों को फांसी

153 हाईकोर्ट से फांसी की सजा माफ हुई

14 आंदोलनकारी को कालापानी की सजा

19 को आठ साल की सजा हुई

57 को पांच साल की सजा हुई

20 को तीन साल की सजा हुई

03 को दो साल की सजा हुई

38 आंदोलनकारियों को बरी किया गया

अब्दुल्लाह के नाम से चला मुकदमा

चौरीचौरा का जिक्र होते ही जुबां पर सबसे पहले शहीद अब्दुल्ला का नाम आता है. ऐसा इसलिए कि उस दौर में अंग्रेजों और हुकूमत के खिलाफ केस दायर करने में सबसे अगली कतार में वही खड़े थे. उनके ही नाम से केस दायर हुआ और मुकदमा चला. काफी लोगों की फांसियां टलीं, लेकिन अब्दुल्ला को नहीं बचाया जा सका. बाराबंकी जेल में उन्हें तीन जुलाई 1923 को फांसी दे दी गई. चौरीचौरा विद्रोह राष्ट्रीय आंदोलन की एक प्रमुख घटना है. खेती पर जमींदारों का एकाधिकार था. किसान कामगार मजदूर जमींदारों के तरह- तरह के लगान और बेगार से पीडि़त और प्रताडि़त थे यह राष्ट्रीय आंदोलन की पहली घटना है जो जमींदारों और ब्रिटिश सरकार की ज्यादती से तंग आकर 4 फरवरी 1922 को चौरीचौरा पुलिस थाने में आग लगा दी गई. इसमें 23 पुलिस कर्मियों की मौत हो गई थी. इस घटना ने ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख दिया. घटना से आहत होकर महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले में अदालती कार्यवाही के बाद 19 लोगो को फांसी, 14 लोगो को उम्र कैद और कई एक को विभिन्न सजाएं दीं.

राजधानी गांव के रहने वाले थे अब्दुल्लाह

गोरखपुर के ब्रह्मपुर ब्लॉक के राजधानी गांव निवासी 40 वर्षीय अब्दुल्लाह चूड़ीहार, राजधानी में अब्दुल्लाह समेत 4-5 घर चूड़ीहारों के थे, सभी कांच की चूडिय़ां बनाते थे और चूडिय़ां बेचकर अपना जीवन यापन करते थे. अब्दुल्लाह के रिश्तेदार नजर अली जो इस विद्रोह के शहीद हैं, वो रंगून से लौटे थे. उनको देश दुनिया में हो रहे हलचलों की खबर थी. अब्दुल्लाह भी देश के हालात और गुलामी से वाकिफ थे. गोरखपुर और आसपास में जब असहयोग आंदोलन की चर्चा शुरू हुई तो अब्दुल्लाह उसमे भाग लिए बिना नहीं रह सके. इसी कड़ी में अब्दुल्लाह के गांव राजधानी शिक्षक योगेन्द्र जिज्ञासु ने वर्ष 2008 में विभिन्न स्रोतों से आंकड़े जुटाकर रामचन्द्र इंटर कॉलेज राजधानी गोरखपुर में एक एकांकी कराकर अब्दुल्लाह के कुर्बानी को याद किया. गुमनाम हो चुके अब्दुल्लाह आस पास के इलाके के चर्चा के विषय बन गए. चौरीचौरा जन विद्रोह के उन्नीस नायकों की फांसी 2 जुलाई से ग्यारह जुलाई 1923 के बीच हुई थी.

एक नजर में चौरीचौरा कांड

13 जनवरी 1922

असहयोग आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए डुमरी खुर्द में मंडल कमेटी का गठन. नजर अली और भगवान अहीर को स्वयंसेवकों की कवायद कराने की जिम्मेदारी दी गई.

16 जनवरी 1922

चौरीचौरा जनप्रतिरोध के बाद महात्मा गांधी के बेटे देवदास गांधी की अध्यक्षता में गैर सरकारी जांच समिति बनी.

31 जनवरी 1922

उपजिलाधिकारी कसया-देवरिया बाबू राम स्वरूप ने हाटा तहसील परिसर में अमन सभा बुलाई. सभा में करीब 1000 लोग शामिल हुए थे.

- अमन सभा के विरोध में स्वयंसेवकों ने डेढ़ फर्लांग दूर डाक बंगले के पास समानांतर सभा की. चौरीचौरा जनप्रतिरोध के सरकारी गवाह शिकारी के अनुसार इस सभा में 4000 से अधिक लोग जुटे थे.

04 फरवरी 1922

डुमरी खुर्द में मंडल कार्यालय की स्थापना के बाद दूसरी बार सभा का आयोजन हुआ. तैयारी की पहली कड़ी में तीन झंडे तैयार कर लिए गए थे. घरों से जलपान के लिए गुड़ जुटाया गया था.

- सुबह नौ बजे पुलिस बल की एक टुकड़ी आठ सशस्त्र जवानों के साथ चौरीचौरा रेलवे स्टेशन पहुंची थी. इधर डुमरी खुर्द से स्वयंसेवकों का जुलूस नजर अली के नेतृत्व में दो पंक्तियों में बंटकर रवाना हो गया था.

- स्वयंसेवकों का जुलूस नारा लगाते हुए थाना परिसर के दक्षिण-पूरब कोने से उत्तर दिशा से मुड़कर आगे बढ़ रहा था. उसे चौरीचौरा बाजार, बाले गांव होते हुए मुंडेरा बाजार की ओर जाना था.

- अधिकतर लोग रेलवे क्रॉङ्क्षसग पार कर चौरा बाजार की ओर चले गए थे. करीब 300 स्वयंसेवक थाने पर रुके थे. स्वयंसेवकों ने दारोगा से एक फरवरी को स्वयंसेवकों को पीटने का कारण पूछा. जवाब में संतुष्ट स्वयंसेवक आगे बढ़ गए.

- कुछ देर बाद दारोगा ने हाथ उठाकर भीड़ को गैर कानूनी घोषित कर दिया. दारोगा का हाथ उठा देख स्वयंसेवकों ने समझा उसने माफी मांग ली और वे आगे बढ़ गए.

- आगे बढ़ते स्वयंसेवक तालियां बजा रहे थे. इसे अपना अपमान समझ दारोगा ने जुलूस पर हमला कर दिया. स्वयंसेवकों ने खतरे की सीटी बजायी तो आगे बढ़ चुके लोग भी लौट आए.

- रेल की पटरी के किनारे से स्वयंसवकों ने पत्थरों की बौछार शुरू कर दी. पुलिस की ओर से गोली चलती रही. बाद में गोली चलनी बंद हो गई. तीन स्वयंसेवक मारे गए. आक्रोशित लोगों ने थाना फूंक दिया.

06 मार्च 1923

16 फरवरी तक हाईकोर्ट इलाहाबाद में सेशन कोर्ट के फैसले के खिलाफ पं. मदन मोहन मालवीय के सहयोग से अपील दाखिल की जा चुकी थी. छह मार्च को मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई.

30 अप्रैल 1923

हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एडवर्ड ग्रीमवुड मीयर्स व सर थियोडोर पिगाट की बेंच ने फैसला सुनाया. 172 में से दो का निधन हो गया था. 19 को फांसी की सजा दी गई. 14 लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी गई. 19 लोगों को आठ साल सश्रम कारावास, 57 को पांच साल सश्रम कारावास, 20 को तीन साल सश्रम, तीन को दो साल की सजा दी गई. 38 लोगों को दोषमुक्त मानते हुए रिहा कर दिया गया.

शहादत दिवस पर कार्यक्रम आज

स्वतंत्रता संग्राम में चौरीचौरा जनक्रांति के शहीदों की याद में सोमवार को शहादत दिवस पर कार्यक्रम होगा. यह जानकारी नगर पंचायत मुण्डेरा बाजार के चेयरमैन प्रतिनिधि व भूतपूर्व चेयरमैन ज्योति प्रकाश गुप्ता ने दी. उन्होंने बताया कि चौरीचौरा जनक्रांति के शहीदों के याद में हर साल शहीद स्मारक परिसर में बलिदान दिवस कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है. उसी क्रम में सोमवार को बलिदान दिवस मनाया जाएगा.

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