देहरादून। आने वाले नौ नवम्बर को उत्तराखंड अपनी स्थापना के 19 वर्ष पूरे कर लेगा। 19 वर्षो बाद आज ज्यादातर आंदोनलकारियों को महसूस हो रहा है कि जिन उम्मीदों के साथ उन्होंने अलग राज्य की लड़ाई लड़ी थी, उनमें में कुछ भी हासिल नहीं हो पाया है। जिन मुद्दों को लेकर यह आंदोलन हुआ, वे मुद्दे आज कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। आज भी शहीद स्मारक पर आंदोलनकारी अपनी मांगों को लेकर धरना देने पहुंचते हैं, लेकिन यहां उनकी सुनने वाला कोई भी नहीं है। खास बात यह है कि विपक्ष में रहते राजनीतिक दल इन आंदोलनकारियों के साथ नजर आते हैं, लेकिन सरकार में पहुंचते ही इन्हें भूल जाते हैं। और तो और मुजफ्फरनगर कांड को लेकर भी अब तक कोई फैसला नहीं आ पाया है।

आज भी पूरी नहीं हुई ये मांगें

-आंदोलनकारियों को दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण दिया जाए।

-गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित किया जाए।

-2008 के शासनादेश के अनुरूप चिन्हीकरण की प्रक्रिया पूर्ण की जाये।

-मुजफ्फरनगर रामपुर तिराहे के दोषियों को सजा दिलाने के लिए ठोस कार्रवाई की जाए।

-राज्य आंदोलनकारियों को उत्तराखंड राज्य निर्माणी सेनानी का दर्जा दिया जाए।

-आंदोलनकारियों के आश्रितों को रोजगार एवं स्वरोजगार में समायोजित किया जाए।

-सीमावर्ती जिलों से पलायन को रोकने के लिए ठोस कार्ययोजना बनाई जाए।

-प्रत्येक जिलों में आधुनिक भारत की तर्ज पर शिक्षा, चिकित्सा , परिवहन एवं रोजगार मिले।

- शहीद स्मारकों का निर्माण किया जाए।

फ्लैश बैक

यूं तो उत्तराखंड को अलग राज्य बनाये जाने की मांग लम्बे समय से की जा रही थी। इसे लेकर कई बार पार्लियामेंट का घेराव भी हुआ। यहीं नहीं राज्य बनाने की मांग को लेकर संसद में एक पत्र भी फेंका गया। ़1994 का निर्णायक राज्य आंदोलन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा एससी-एसटी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने से शुरू हुआ। तर्क यह दिया गया कि पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 2 प्रतिशत एससी, एसटी आबादी है, ऐसे में मैदानों से लोग यहां आएंगे और स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा। नौ अगस्त को पौड़ी में छात्रों ने विरोध जताया। इसके बाद इंद्रमणि बड़ोनी ने सांकेतिक धरना किया और आरक्षण आंदोलन अलग राज्य आंदोलन में बदल गया। एक सितम्बर 1994 को खटीमा में और 2 सितम्बर को मसूरी आंदोलनकारियों में पुलिस ने गोलियां चलाई। दोनों जगह कई मौतें हुई। 2 अक्टूबर की दिल्ली रैली में जा रहे आंदोलनकारियों पर मुजफ्फर नगर में अत्याचार हुआ। यहां भी कई लोग मारे गये। इसके बाद राज्यभर में उग्र आंदोलन हुआ और अलग-अलग जगहों पर कई लोग पुलिस की गोली से मारे गये। एक वर्ष बाद 10 नवम्बर 1995 को श्रीनगर में श्रीयंत्र टापू पर फिर पुलिस ने कहर बरपाया और दो आंदोलनकारी मारे गये।

28 अगस्त 2000 को राष्ट्रपति के आर नारायण ने उत्तर प्रदेश पुर्नगठन विधेयक को मंजूरी दी और नौ नवम्बर 2000 को 27 वे राज्य के रुप में उत्तरांचल का गठन हुआ।

राज्य आंदोलनकारी जयदीप सकलानी के अनुसार अलग राज्य की कल्पना जिस उद्देश्य से की गई थी। वह पूरी नहीं हो पाई है। पहाड़ों में पलायन जारी है। गांव खाली हो गए हैं, सरकार न तो रोजगार दे पाई और न ही प्रदेश के हित में कोई बड़ा कदम उठा पाई है। दोनों ही पाटियां विपक्ष में रहते हुए तो आंदोलनकारियों की मांगों को पूरा करने का आश्वासन देती हैं, लेकिन सत्ता में आते ही भूल जाती हैं। स्थाई राजधानी का अब तक निर्णय नहीं हो पाया है।

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हासिए पर कई अंादोलनकारी

आज भी प्रदेश में आंदोलनकारियों को हासिए में रखा गया है। आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले ज्यादातर लोग अब भी सड़कों पर हैं। नियमित रूप से कचहरी स्थिति शहीद स्थल पर धरना देने आने वाली महिलाओं में ज्यादातर के हाल बुरे हैं। इनमें कुछ तो ऐसी भी हैं, जिन्हें पुलिस की लाठियों से सामान्य जीवन जीने लायक भी नहीं रखा, लेकिन उत्तराखंड की सरकारों ने भी उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया।