ये वही इंजन है जिसे भारत को विकसित करने में बीस वर्ष का समय लगा, जिसकी तकनीक को भारत अपने पड़ोसी देश रूस से हासिल करना चाहता था.

लेकिन अमरीका के दबाव में रूस ने भारत को ये तकनीक नहीं दी थी.

बीस वर्ष बाद ही सही भारत ने क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक में महारथ हासिल कर ली है.

इस तकनीक का महत्व इस तथ्य में निहित है कि दो हज़ार किलो वज़नी उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के लिए क्रायोजेनिक इंजन की सख़्त ज़रूरत पड़ती है.

इसकी वजह ये है कि इसी इंजन से वो ताकत मिलती है, जिसके बूते किसी उपग्रह को 36,000 किलोमीटर दूर स्थित कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया जाता है.

इस सफल प्रक्षेपण के साथ ही ये कहा जा सकता है कि भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान की दुनिया में अब हर तरह की उपलब्धि हासिल कर ली है.

भारत का छोटा रॉकेट पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) यानी ध्रुवीय प्रक्षेपण यान बहुत क़ामयाब है. भारत अपने उपग्रह ख़ुद बना रहा है.

क्रायोजनिक इंजन भारत के संचार उपग्रहों को भी प्रक्षेपित करेगा. भारत जब अपना चंद्रयान-2 मिशन आरंभ करेगा, उसके लिए भी जीएसएलवी की ज़रूरत होगी.

'अमरीका के मुंह पर तमाचा'

बीस वर्ष की मेहनत,क्रायोजेनिक में सफलता

अमरीका ये कहकर इस तकनीक को भारत से दूर रखने की कोशिश करता रहा कि वो इसका इस्तेमाल अपने सैन्य ताक़त बढ़ाने में कर सकता है.

लेकिन भारत ने अपना अंतर-महाद्वीय प्रक्षेपास्त्र अग्नि-5, क्रायोजेनिक इंजन से पहले विकसित करके दिखाया जिसकी मारक क्षमता पांच हज़ार किलोमीटर से अधिक है.

भारत ने अग्नि-5 के दो सफल प्रक्षेपण किए और ख़ास बात ये है कि ये प्रक्षेपास्त्र ठोस रॉकेट ईंधन से चलता है. भारत ने उसे क्रायोजनिक इंजन से नहीं चलाया है.

भारत शुरू से ही ये कहता रहा था कि वो क्रायोजेनिक तकनीक का इस्तेमाल अपनी असैन्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए करेगा और उसने ऐसा करके भी दिखाया. भारत ने इसे अपने असैन्य अंतरिक्ष कार्यक्रम तक सीमित रखा.

भारतीय रक्षा एवं अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) के प्रमुख पहले भी ये कहते रहे हैं कि भारत क्रायोजेनिक इंजन से अपने प्रक्षेपास्त्रों को नहीं चलाएगा.

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