तमाम विफलताओं के बावजूद भारत की ताकत है उसका लोकतंत्र। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ, क्योंकि भारत एक अवधारणा के रूप में देश के लोगों के मन में पहले से मौजूद था। इस नई मनोकामना की धुरी पर है हमारा लोकतंत्र। पर यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं। स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन।

भारतीय राष्ट्र-राज्य अभी विकसित हो ही रहा है। कई तरह के अंतर्विरोध हमारे सामने आ रहे हैं और उनका समाधान भी हमारी व्यवस्था को करना है। कश्मीर भी एक अंतर्विरोध और विडंबना है। उसकी बड़ी वजह है पाकिस्तान, जिसका वजूद ही भारत-विरोध की मूल-संकल्पना पर टिका है। बहरहाल कश्मीर के अंतर्विरोध हमारे सामने हैं। घाटी का समूचा क्षेत्र इन दिनों प्रतिबंधों की छाया में है। कोई नहीं चाहता कि वहाँ प्रतिबंध हों, पर क्या हम जानते हैं कि अनुच्छेद 370 के फैसले के बाद वहाँ सारी व्यवस्थाएं सामान्य नहीं रह सकती थीं।

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दो साल पहले बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर में अराजकता का जो दौर चला उसे भी याद करना चाहिए। जबर्दस्त हिंसा के उस दौर में 80 से ज्यादा मौतें हुईं और 79 दिन तक कर्फ्यू लगा रहा। वॉट्सएप और फेसबुक संदेशों के मार्फत कश्मीरी किशोरों के मन में जहर भरा गया। यह सब सीमा के पार से संचालित हो रहा था। पिछले कुछ वर्षों से यह सवाल उठ रहा है कि लोकतंत्र की खुली खिड़की के रास्ते क्या हमारे जीवन में हिंसा और आतंकवाद का प्रवेश नहीं हो रहा है? लोकतांत्रिक संस्थाओं का खुलापन आतंकवादियों को रास आता है। बुनियादी रूप से वे लोकतंत्र के खिलाफ हैं, पर अपनी तरफ ध्यान खींचने में कामयाब हुए हैं। लोकतंत्र लोगों को अपनी शिकायतें ज़ाहिर करने का पूरा मौका देता है, जिसका लाभ ये संगठन लोगों को भड़काने में लेते हैं। प्रचार की प्राणवायु पर आतंकवाद जीवित है। यह प्रचार उन्हें मुफ्त में मिल जाता है। इस काम में लोकतांत्रिक संस्थाओं की मदद लेने में उन्हें संकोच नहीं है। सन 2008 मुम्बई हमले के दौरान पाकिस्तानी हमलावरों ने सोशल मीडिया के साथ-साथ भारतीय मीडिया में हो रही कवरेज का फायदा भी उठाया था। संयोग से यह सवाल इस वक्त फिर से उठ रहा है।

पिछले तीन-चार दिन से सोशल मीडिया पर पाकिस्तानी दुष्प्रचार की बाढ़ है। इसी बाढ़ में कुछ ऐसी बातें उभर कर सामने आ रही हैं, जिनसे जाहिर होता है कि हमारे लोकतंत्र को ही हथियार बनाकर हमारे खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। पाकिस्तान के एक पूर्व हाई कमिश्नर अब्दुल बसीत ने अपने देश के किसी टीवी चैनल से कहा कि सन 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद वे चाहते थे कि भारत के पत्रकारों में से कोई लिखे कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिए जनमत संग्रह कराना चाहिए। उनकी बात मानकर शोभा डे ने अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय अखबार में इस आशय का लेख लिख भी दिया। हालांकि शोभा डे ने कहा है कि अब्दुल बसीत झूठ बोल रहे हैं, पर पाकिस्तानी राजनयिक क्या करना चाहते हैं, यह तो समझ में आता ही है।

इन बातों से एक बात निकलकर आती है कि पाकिस्तान हमारी उदार व्यवस्था के भीतर प्रवेश करके अपना हित साध रहा है। इन दिनों जिओ टीवी की एक क्लिप सोशल मीडिया चल रही है, जिसमें पाकिस्तान के राजनेता मुशाहिद हुसेन एक डिस्कशन में कह रहे हैं, ‘यह तबील जंग है। इसे संस्टेंड तरीके से चलाना चाहिए। इंडिया बहुत बड़ा मुल्क है और हिन्दुस्तान के कई लोग आपके सिम्पैथाइजर भी हैं। अरुंधती रॉय हैं, ममता बनर्जी हैं, कांग्रेस पार्टी है, कम्युनिस्ट पार्टी, दलित पार्टियाँ…’

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एक तरफ पाकिस्तानी मीडिया वहाँ के फौजी हुक्मरां के इशारों पर चलता है, वहीं वह भारत की स्वतंत्रता का फायदा उठाकर अपने हित पूरे कराना चाहता है। अब पाकिस्तानी एजेंट हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल भी अपने प्रचार में कर रहे हैं। पाकिस्तान के एक मंत्री चौधरी फवाद हुसेन ने गुरूमुखी में ट्वीट करके भारतीय सेना के पंजाबी भाषी सैनिकों को उकसाया है। इधर-उधर के वीडियो क्लिपिंग्स का इस्तेमाल जमकर हो रहा है।

यह केवल भारत की बात ही नहीं है। ब्रिटेन के जीसीएचक्यू (गवर्नमेंट कम्युनिकेशंस हैडक्वार्टर्स) प्रमुख रॉबर्ट हैनिगैन के अनुसार फेसबुक और ट्विटर आतंकवादियों और अपराधियों के कमांड एंड कंट्रोल नेटवर्क बन गए हैं। फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने बताया कि आईएस (इस्लामिक स्टेट) ने वैब का पूरा इस्तेमाल करते हुए सारी दुनिया से ‘भावी जेहादियों’ को प्रेरित-प्रभावित करना शुरू कर दिया है। आईएस के कार्यकर्ता फेसबुक, यूट्यूब, वॉट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम, टम्बलर, इंटरनेट मीम और सोशल मीडिया के दूसरे प्लेटफॉर्मों का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का बुनियादी मूल्य है, पर इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल लोकतंत्र के खिलाफ भी हो सकता है। आतंकियों के बरक्स कश्मीर में सामान्य व्यक्ति की राय का पता आप नहीं लगा सकते। पता कैसे लगाएंगे? जो तंज़ीमें इस आंदोलन में सबसे आगे हैं, उनकी दिलचस्पी लोकतंत्र में नहीं है। वे जैशे मोहम्मद, लश्करे तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन जैसे खूंखार संगठनों के साथ हैं। वे आपको जनता के करीब जाने नहीं देंगी। इस बार का स्वतंत्रता दिवस संकल्प इस लड़ाई में विजय हासिल करने का होना चाहिए।

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