-राज्य भर से आए आदिवासियों ने भरी हुंकार, पत्थलगड़ी को बताया परंपरा

रांची : कुरमी और तेली द्वारा खुद को आदिवासी श्रेणी में शामिल करने की मांग के खिलाफ शनिवार को पूरे राज्य से हरमू मैदान में आदिवासी संगठनों के सदस्य जुटे और पुरजोर तरीके से कहा कि कुरमी-तेली को आदिवासी की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाए। सरकार ने इसका प्रयास किया, तो उसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। कुरमी और तेली कहीं से भी आदिवासी नहीं हैं। न परंपरा के हिसाब से, न संस्कृति के हिसाब से। जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस)के आह्वान पर आक्रोश महारैली का आयोजन किया गया था, जिसमें जामाताड़ा, दुमका, देवघर, गोड्डा, पाकुड़, बोकारो, धनबाद, हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, गुमला, खूंटी और रांची से बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए।

सांसदों-विधायकों को घुसने नहीं देंगे

जयस के झारखंड प्रभारी संजय पाहन ने कहा कि मुख्यमंत्री और 42 विधायकों ने कुरमी और तेली को आदिवासी बनाने के पक्ष में जो अनुशंसा पत्र भेजा है, उसे वापस ले नहीं, तो गांवों में सांसदों व विधायकों को घुसने नहीं दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि जय आदिवासी युवा शक्ति इस मामले के साथ-साथ देश के 10 राज्यों में पांचवीं अनुसूची लागू करने को लेकर अप्रैल में एक करोड़ आदिवासियों के साथ दिल्ली में संसद का घेराव किया जाएगा।

मील का पत्थर साबित होगी रैली

आदिवासी जन परिषद के अध्यक्ष प्रेमशाही मुंडा ने कहा कि 10 मार्च की यह रैली मील का पत्थर साबित होगी। उन्होंने मुंडा मानकी, खूंटकटी, मांझी, डोकलो सोहोर के प्रतिनिधियों से बढ़चढ़ कर आने का आह्वान किया। पत्थलगड़ी पर कहा कि यह हमारी परंपरा रही है। रांची में भी अपनी जमीन बचाने के लिए झंडागड़ी व पत्थलगड़ी की जाएगी। आदिवासी सेना के अध्यक्ष शिवा कच्छप ने कहा कि संवैधानिक अधिकारों पर हमला बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। केंद्रीय सरना समिति के अध्यक्ष अजय तिर्की ने कहा कि कुरमी तेली अपने आरक्षण में बढ़ोतरी की बात करें न कि आदिवासी बनने का प्रयास करें। आदिवासी छात्र संघ के अध्यक्ष सुशील उरांव ने भी संबोधित किया। केंद्रीय सरना समिति के फूलचंद तिर्की ने कहा कि आदिवासी, तेली और कुरमी की संस्कृति परंपरा धार्मिक कर्मकांड में जमीन-आसमान का अंतर है।

अधिकार के लिए देंगे कुर्बानी

सिदो-कान्हू की छठवीं पीढ़ी के वंशज मंडल मुर्मू ने कहा कि हमारे पूर्वजों ने आबुआ दिशुम आबुआ राज के लिए कुर्बानी दी। आज जो शासन कर रहे हैं, वह बताएं कि उन्होंने कितनी कुर्बानी दी। 30 जून 1855 को दस हजार लोग शहीद हुए। किस लिए, इसलिए नहीं कि हम अपनी ही जमीन से बेदखल हो जाएं। मंडल ने कहा कि एक बार फिर कुर्बानी की जरूर पड़ी तो देंगे।