फुटबॉल का सेल्फ गोल

- रांची में चार बड़ी टीमों के खिलाडि़यों का था क्रेज

- दो आने का टिकट लेकर बारी पार्क में मैच देखने पहुंचते थे लोग

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RANCHI (9 June) : मोबाइल फोन, स्मार्ट टीवी, टी-20 क्रिकेट, वर्चुअल गेम्स। आज ऐसे अनगिनत साधन हैं इंटरटेनमेंट के, लेकिन रांची के लोगों के लिए साठ से अस्सी के दशक में इंटरटेनमेंट का एक ही नाम होता था: फुटबॉल। लोगों में इतना क्रेज कि खिलाडि़यों को लोग बाजार में पहचान लेते, तो घेर कर खड़े हो जाते। तब बेशक सेल्फी युग नहीं था, लेकिन हाथ मिलाने चलन बहुत ज्यादा था। जिसने अपने पसंदीदा खिलाड़ी से हाथ मिला लिया, वह पूरे मोहल्ले को आकर बताता था कि आज मैंने अमुक स्टार फुटबॉलर से हाथ मिलाया!

तीस साल रहा स्वर्णिम युग

रांची में फुटबॉल का इतिहास काफी पुराना है। इस फील्ड के जानकार बताते हैं कि करीब तीस साल तक इस खेल ने सिटी को अपने आगोश में समाये रखा। 'रांची फुटबॉल का स्वर्णयुग' शीर्षक किताब के लेखक सुभाष डे बताते हैं कि सन 1950 से लेकर 1980 तक सिटी में फुटबॉल का खासा क्रेज था। एक से बढ़कर एक प्लेयर हुए, जिन्होंने अपने खेल से लोगों का दिल जीता। इनमें प्रमुख रूप से सुदीप तिर्की, अली ईमाम, रंजीत रुद्रा, आरके लाल उर्फ डोमन, कासिम गद्दी और हजारीबाग से खास तौर पर बुलवाए गये मो सेराजुद्दीन का नाम आता है।

मैच वाले दिन छा जाता था सन्नाटा

रांची में तब लीग मैच का आयोजन मौजूदा जयपाल सिंह स्टेडियम और तब के अब्दुल बारी पार्क में हुआ करता था। वर्ष 1955 में 2 आने का एक टिकट लगता था। पूरा मैदान खचाखच भर जाता था। उस समय मुख्य रूप से रांची फुटबॉल क्लब (आरएफसी), यंग छोटानागपुर ब्लू क्लब, बिहार मिलिट्री पुलिस (बीएमपी) और यूनियन क्लब (थड़पखना) की टीमों के बीच जबर्दस्त मुकाबला होता था। आरएफसी को जहां पूरे अपर बाजार का समर्थन मिलता था, तो वहीं यंग छोटानागपुर ब्लू आदिवासियों के समर्थन वाली टीम मानी जाती थी।

गम बूट पहन कर खेलते थे प्लेयर्स

साठ साल पहले रांची में एक भी कायदे का स्टेडियम नहीं था। मैदानों में ही लीग के मैच हुआ करते थे। तब बारिश के बाद भी मैदान सूखने में हफ्तों का समय लग जाता था। उस समय प्लेयर्स गम बूट पहन कर मैच खेलते थे, क्योंकि दोन की मिट्टी में पैर फंस जाने पर बूट से पैर खींच लेना आसान होता था। उस समय प्लेयर्स फिटनेस पर बहुत ज्यादा ध्यान देते थे। तब जिम नहीं होता था, लेकिन कसरत करने के लिए प्लेयर्स सुबह-सवेरे उठकर खुद को झोंक दिया करते थे। 80 के दशक में क्रिकेट ने घरों में दस्तक दी, तो टीवी के जरिए यह खेल हर घर में पहुंच गया। इसके बाद धीरे-धीरे रांची में फुटबॉल का क्रेज भी घटने लगा

कोट

60 के दशक में जिस दिन रांची में मैच होता था, उस दिन सड़कें सुनसान हो जाती थीं। लोग सीधे मैदान पहुंच जाते और वहां का नजारा तो देखने लायक होता था। इतना क्रेज कि आज उसकी कल्पना भी नहीं की सकती।

सुभाष डे, लेखक एवं इतिहासकार