फिल्म : कागज
कलाकार : पंकज त्रिपाठी, सतीश कौशिक, एम् मोनल गज्जर, मीता वशिष्ठ, अम्र उपाध्याय, नेहा चौहान, बृजेंद्र काला
निर्देशक : सतीश कौशिक
चैनल : जी 5
रेटिंग : तीन स्टार

क्या है कहानी
फिल्म का संवाद है। इस देश में राज्यपाल से भी बड़ा लेखपाल होता है और उसके लिखे को कोई नहीं मिटा सकता। पूरी फिल्म का सार इसी पंक्ति में है। कहानी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के अमीनो गांव से शुरू होती है। भरत लाल (पंकज त्रिपाठी ) एक बैंड में काम करते हैं, अपनी पत्नी रूक्मिणी (एम मोनल ) और अपने बच्चों के साथ खुश हैं। अचानक से उसे लोन की जरूरत होती है, भरत बैंक जाता है, लोन के लिए उससे जमीन के कागज गिरवी रखने को मांगे जाते हैं। वहीं कहानी का सबसे बड़ा ट्विस्ट आता है, जिसमें उसे पता चलता है कि कानूनी रूप से उसे कागज पर मृत घोषित किया जा चुका है और जमीन चाचा के बेटों के नाम कर दी गई है। यहाँ से खेल शुरू होता है। भरत संघर्ष करता है। वह एक छोटे से कानून के रखवाले से लेकर, कोर्ट और उसके बाद प्रधानमंत्री तक पहुंचता है। लेकिन क्या वह खुद को जीवित साबित कर पाता है। इस कहानी के बहाने, भरत के संघर्ष के बहाने, हम लचर सिस्टम के साथ उसकी खामियों की लंबी फेहरिस्त देखते चलते हैं। 18 साल के लम्बे संघर्ष के बाद भी क्या भरत को न्याय मिलता है। इस फिल्म के बहाने हमें कई कानूनी पेंच भी पता चलते हैं।

क्या है अच्छा
कहानी बेहद सरल और रियलिस्टिक अप्रोच के साथ प्रस्तुत की गई है, अभिनय, बैकड्रॉप, लोकेशन सबकुछ कहानी के मुताबिक है। संवाद अच्छा है। नए कलाकारों को काम करने का अच्छा स्पेस मिला है।

क्या है बुरा
फिल्म जिस जोश से शुरू होती है, सेकेंड हाफ में खींच जाती है, कहीं-कहीं भटक भी जाती है। जबर्दस्ती की भाषणबाजी भी हो गई है। सतीश कौशिक का नैरेशन बोर करता है।

अभिनय
पंकज त्रिपाठी ने जिस लग्न से इस फिल्म में मेहनत की है, वह पर्दे पर नजर आती है, हाल के दिनों में वे जैसे किरदार कर रहे हैं, इस फिल्म में उन्होंने उस पंकज को भूला कर, नए को अपनाया है। सतीश कौशिक भी छोटे लेकिन प्रभावशाली किरदार में हैं। एम मोनल, नेहा, अमर और बृजेन्द्र काला के लिए अधिक स्पेस नहीं था। लेकिन अच्छा काम किया है। संदीपा धर का आयटम सांग बेवजह का लगा।

वर्डिक्ट
रियलिस्टिक और रस्टिक सिनेमा प्रेमियों के लिए अच्छी फिल्म है।

Review By: अनु वर्मा

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