लेह (आईएएनएस)। गलवान घाटी लद्दाख का वो हिस्सा है जहां चीन अपना दावा करता रहा है। यह आज का मुद्दा नहीं है, सालों से चीनी सैनिकों ने इस एरिया में घुसपैठ की कोशिश की। मगर भारतीय सैनिकों ने हर बार मुंहतोड़ जवाब दिया। गलवान घाटी, यहां के एक स्थानीय व्यक्ति गुलाम रसूल गलवान के नाम पर पड़ी। इसकी भी एक रोचक कहानी है। बात आजादी से पहले की है, जब देश में अंग्रेजों की हुकूमत थी। इन अंग्रेजों के लिए पहाड़ों पर जाना आसान नहीं होता था। इसलिए वो अपने साथ एक स्थानीय व्यक्ति को रखते थे।

क्या है गलवान घाटी की कहानी

साल 1895 की बात है, अंग्रेजों का एक दल पहाड़ों में ट्रैकिंग करने गया। उनके साथ गुलाम रसूल गलवान भी थे। चूंकि पहाड़ों का रास्ता इतना खराब था कि, वहां से निकलना मुश्किल हो गया। ऐसे में अंग्रेजों की जान पर बन आई। उनको ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो उन्हें सुरक्षित घर पहुंचा दे। ये काम रसूल गलवान ने किया। रसूल ने सभी अंग्रेजों को सुरक्षित निकाला। जिससे खुश होकर अंग्रेजी हुकूमत ने रसूल से इनाम मांगने को कहा। तब गलवान ने कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए, लेकिन इस घाटी का नाम मेरे नाम पर रख दें। तब से यह एरिया गलवान घाटी के नाम से जाना जाता है।

गलवान के पोते आज भी रहते हैं वहां

आज इसी गलवान घाटी को लेकर भारत और चीन के बीच तनाव बरकरार है। रसूल गलवान तो अब हैं नहीं, मगर उनके पोते लेह-लद्दाख में रहते हैं। रसूल गलवान के पोते मोहम्मद अमीन गालवान ने कहा कि वह उन जवानों को सलाम करते हैं, जिन्होंने चीनी पीएलए के साथ लड़ते हुए घाटी में सर्वोच्च बलिदान दिया था। उन्होंने कहा, "युद्ध विनाश लाता है, आशा है कि एलएसी पर शांति से हल निकाला जाए।' घाटी के साथ परिवार के गहरे जुड़ाव के बारे में अमीन गलवान ने कहा कि उनके ग्रैंड फादर अक्साई चिन क्षेत्र में पहुंचने के लिए सबसे पहले व्यक्ति थे।

चीन करता रहा है दावा

अमीन गलवान कहते हैं, यह पहली बार नहीं है जब चीन ने इस पर कब्जा करने की कोशिश की है, लेकिन इस तरह के प्रयास पहले भी किए गए। मगर भारतीय सैनिकों द्वारा हमेशा करारा जवाब दिया गया। अमीन कहते हैं, "चीन ने 1962 में घाटी पर भी नजर रखी थी, लेकिन हमारे सैनिकों ने उन्हें बेदखल कर दिया, अब भी वे ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं, दुर्भाग्य से हमारे कुछ जवान शहीद हो गए, हम उन्हें सलाम करते हैं।'

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