- 16वीं विधानसभा चुनाव में सातों वामपंथी दल मिलकर लड़ेंगे

- सात सितंबर को है वाम दलों का जन कन्वेंशन, हो सकती है सीटों की घोषणा

PATNA: आगामी विधानसभा चुनाव में बिहार के तमाम वामपंथी दल एक साथ चुनावी मैदान में उतरेंगे। बिहार के किसी भी वामपंथी नेता से इस मसले पर बात कर लीजिए, वे इस एकता को समय की मांग बताएंगे। समय की मांग कितनी है, ये जनता जानती है। पर, एक साथ चुनाव में लड़ना इनकी बड़ी मजबूरी भी है। बिहार में सुनहरे अतीत को जी चुका वामपंथ सोलहवीं विधानसभा में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए भी उतरेगा।

सबकुछ लुटाकर सचेत हुए वाम

वाम एकता की कवायद पिछले कई सालों से चल रही है। पिछले लोकसभा और ख्0क्0 के विधानसभा में भी वामदलों के एक साथ चुनाव लड़ने की कोशिश हुई, पर चुनाव आते-आते सारी कोशिशों पर पानी फिर गया। सीपीआई और सीपीएम हालिया लोकसभा जदयू के साथ लड़ी, लेकिन जिस उम्मीद के साथ यह गठबंधन किया गया था वह सफल नहीं हो सका। यह अहसास सीपीआई को भी बहुत बाद में हुआ कि अब एक साथ होने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं है। आज तक वामपंथियों ने जिनके साथ गठबंधन किया, इन्हें उनसे धोखा दिया, साथ ही जिनके खिलाफ गठबंधन किया वे मजबूत होते चले गए। जदयू और राजद के साथ रहे, तो दोनों ही दलों ने वाम के कैडर का चुनावों में फायदा उठाया। ख्00ख् में जब राष्ट्रपति पद का चुनाव हो रहा था, तब भी जदयू बीजेपी कांग्रेस, सपा, राजद सभी ने एक ही कैंडिडेट का साथ दिया, जबकि वाम दल लक्ष्मी सहगल का सपोर्ट कर रही थी। यही हाल एफडीआई के मसले पर भी रहा। लेफ्ट जिसके साथ रहे या थे, वे सब इनके विरोध में ही रहे। ऐसे कई उदाहरण हैं। अब सबकुछ गंवाकर लेफ्ट सचेत हुए हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में लेफ्ट की चुनौती होगी कि वे फिर से वर्गीय एकता कायम करने में कामयाब हों।

इस बार सातों वाम दल एक साथ

बिहार में तीन बड़े वाम दल सीपीआई एमएल, सीपीआई और सीपीएम एक साथ चुनाव लड़ेंगे, साथ ही इस बार के चुनाव में एसयूसीआई, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी साथ रहेंगे। अपने जनाधार को बचाने की चिंता ही कही जा सकती है कि जो एसयूसीआई बंगाल में लंबे समय से सीपीएम की विरोधी रही, वही बिहार में साथ चुनाव लड़ रही है। फिलहाल गठबंधन पर मुहर लग गयी है। दलों के बीच बैठकों का दौर जारी है। जल्द ही सीटों को लेकर भी घोषणा हो जाएगी। 7 सितंबर से पहले वामदल सीटों के बारे में घोषणा कर सकते हैं। मालूम हो कि 7 सितंबर को वाम दलों का जन कन्वेंशन हो रहा है। इस कन्वेंशन में सातों वाम दलों के महासचिव मौजूद रहेंगे।

अपने ही कारणों से आया अस्तित्व पर संकट

बिहार में वामपंथ का मजबूत जनाधार रहा है। वामपंथ को पहला सीटी क्9भ्म् में बेगूसराय में मिली थी। कॉमरेड चंद्रशेखर जीतकर सदन पहुंचे थे। क्97ख् में बिहार विधानसभा में भाकपा के फ्भ् विधायक हुआ करते थे। यह वामपंथ के मजबूत जनाधार का ही असर था कि क्977 के जनता लहर में भी सीपीआई ने ख्क् सीट और सीपीएम ने ब् सीटें जीती थीं, लेकिन ख्000 के बाद से इसका जनाधार घटता चला गया। नवंबर ख्00भ् में यह संख्या घट कर तीन हो गई और ख्0क्0 के विधानसभा में सीपीआई मात्र एक सीट ही बचा सकी। वहीं, बाकी वामपंथी दलों का सफाया हो गया।

नतीजा सबके सामने है

एक समय था जब बिहार वामपंथ की पाठशाला के रूप में जाना जाता था। बिहार में वाम राजनीति चरम पर थी। वाम ने बिहार में लंबी लड़ाई लड़ी है। जातीय उत्पीड़न के खिलाफ, आर्थिक और सामाजिक बराबरी के हक में, उचित मजदूरी और बेगारी प्रथा के खात्मे एवं सांस्कृतिक विकास जैसे अनेकों मसले पर हमेशा आंदोलनरत रही थी, जिसने वाम को बिहार में मजबूत आधार दिया था, बाद के दिनों में वाम संघर्ष से कटता गया, मेहनतकशों के मसले इसके हाथ से जाते रहे और नतीजा सबके सामने है। इनके लूपहोल सिर्फ यही नहीं रहे, कालांतर में कुशल नेतृत्व की भी कमी आई। सूर्य नारायण सिंह, भोगेन्द्र झा, सुनील मुखर्जी और जगन्नाथ सरकार जैसे वाम नेताओं की धरती रही बिहार को बाद के दिनों में बेहतर नेतृत्व भी नहीं मिल सका।

मंडलवाद ने किया वाम को कमजोर

वामदलों ने कुछ ऐतिहासिक भूलें की हैं, जिसे बाद के दिनों में इन्होंने महसूस भी किया। जेपी आंदोलन के समय वामपंथी दल इमरजेंसी का विरोध नहीं कर सके, वित्तमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने नव उदारवाद का समर्थन किया था, उस दौरान भी वाम दलों ने विरोध नहीं किया था। बिहार में ही लालू के साथ चले जाने को ये अपनी भूल मानते हैं। मंडल कमीशन ने लालू को मसीहा बनाया था। उस समय भी इन्होंने जाती के आधार पर आरक्षण के पक्षधर रहे लालू का साथ दिया। ये खास वजह रही कि इनके जनाधार का फायदा लालू उठाते चए गए, और इनका वर्गीय जनाधार वर्णीय जनाधार में बंटता चाला गया। बिहार में वामपंथ के जड़ों पर मंडलवाद के उभार ने जोरदार प्रहार किया। जो जातियां कभी कई इलाकों में भाकपा का जनाधार हुआ करती थी, धीरे-धीरे जातीय आधार पर गोलबंद होते गए।

इसी गोलबंदी ने दिलाया मजबूत जनाधार

लालू के लिए यही गोलबंदी मजबूत जनाधार का काम किया। बाद के दिनों में सीपीआई और माले से टूट कर लोग लालू के साथ होते चले गए। अगर हाल के कुछ वषरें की बात करें, तो भी सीपीआई या कोई भी वाम दल बिहार में कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा कर पाया। बिहार में यह धारणा बनती चली गयी कि मेहनतकशों और बेजुबान की लड़ाई बिहार में अब वामपंथियों द्वारा नहीं लड़ी जा रही है। हाल के दिनों में भी बिहार में कई ज्वलंत मुद्दे तो आए, लेकिन इन मुद्दों पर कभी-कभी वामदल एक साथ सड़क पर नजर नहीं आए। विगत दो दशकों से लगातार हर मोर्चे पर विफल हो रहे वामपंथी पार्टियों के लिए यह विधानसभा चुनाव साख का सवाल बनकर सामने आया है। वामपंथियों के लिए अस्तित्व बचाने के साथ साथ यह भी चुनौती है कि कैसे वो अपने वर्गीय जनाधार को भरोसे में ले पाती है।

Posted By: Inextlive