ये इमारत विदेश में है लेकिन इसका भारत से गहरा रिश्ता है। ये आज गुमनामी का शिकार है। इसे देश के लिए खोजा है एक भारतीय नागरिक यशवंत देशमुख ने। ये इमारत भारत को पुकार रही है। आवाज दे रही है देशभक्ति को क्योंकि कभी ये रही है देशभक्ति के सबसे बड़े उदाहरण का मुख्यालय।

कुर्सी के पास लिखे पते से मिला संकेत
इस इमारत के बारे में पहली बार मुझे तब पता लगा जब मैं दिल्ली के लाल किले में म्यूजियम देखने गया। वहां एक कुर्सी रखी थी जिसके बारे में बताया गया कि वो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कुर्सी है। वो भारत की निर्वासित सरकार के मुख्यालय में प्रयोग की जाती थी। कुर्सी में रंगून की उस जगह का पता लिखा था जहां दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वो रखी थी। ये बात मेरे जहन में बसी थी। कुछ दिनों के बाद एक इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में मेरा यंगून जाना हुआ। काम से फ्री होने पर मेरा मन उस जगह को देखने का हुआ जहां आजाद हिंद फौज का मुख्यालय रहा था। पर मैं ये देख कर हतप्रभ रह गया कि टूरिस्ट गाइड तो दूर किसी भी टूरिस्ट ऑफिस को उस जगह के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। तब मैंने फैसला किया कि मैं खुद उस जगह को खोजूंगा। मुझे पता याद नहीं रह गया था इसलिए मैंने अपने एक मित्र से रिक्वेस्ट की कि वो लाल किले के म्यूजियम जाकर नेताजी की कुर्सी के पास लिखा पता मुझे बता दे।
51 यूनिवर्सिटी लेन वाला घर
पता मिलते ही मैं 51 यूनिवर्सिटी लेन की तलाश में निकल पड़ा। यूनिवर्सिटी लेन यंगून का मशहूर इलाका है सो बहुत आसानी से वहां पहुंच गया। 50 यूनिवर्सिटी लेन तुरंत मिल गयाजो आंग सान सू की के पिता का ऐतिहासिक घर निकला लेकिन वहां 51 यूनिवर्सिटी लेन वाला घर नहीं मिल रहा था। तभी मेरी नजर सू की के घर के बगल में जा रही एक गली पर पड़ी। मैं उधर ही बढ़ चला। गली के छोर से एक पुरानी इमारत नजर आई। पास जाकर देखा तो उसके बाहर लिखा था 51 यूनिवर्सिटी लेन। इमारत की हालत देख कर मैं हक्का बक्का रह गया।

इमारत पुरानी हवेलीनुमा थी जिसका नियमित रखरखाव न हुआ हो। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी खोज की सफलता पर खुश होऊं या आंसू बहाऊं उसकी हालत देखकर। इस हाल में है वो इमारत जिस पर देश को गर्व करना चाहिए। जिसकी दरोदीवार नेताजी की यादों से महकते हों वहां काई और घास फूस। हिम्मत करके बाउंड्री के भीतर दाखिल हुआ। कुछ फोटो खींची तभी मेरी नजर बिल्डिंग की छत पर लगे डिश एंटीना पर पड़ी। मुझे लगा यहां कोई रहता जरूर होगा। बिल्डिंग के भीतर झांका तो एक जगह कुछ कपड़े सूख रहे थे। काफी देर इमारत के चारों ओर मंडराने के बाद भी कोई आदमी नहीं नजर आया। मैं वापस लौट ही रहा था तभी एक कार बाउंड्री से दाखिल होती दिखी। एक अधेड़ उम्र का कपल मुझे घूरता हुआ गाड़ी से बाहर आया। मैंने अपना परिचय दिया और बताया कि मैं क्यों वहां आया हूं।

बन चुका है किसी का घर

मुझे जान कर बेहद ताज्जुब हुआ कि उन्हें उस इमारत के इतिहास के बारे में कुछ नहीं पता था। महिला ने बताया कि वो कोठी उनकी दादी की है और वो ही वहां रहती हैं। वो कपल खुद भी विदेश में रहता था और दादी की तबीयत खराब होने के कारण उन्हें देखने आया था। मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे वृद्ध महिला से मिलवा दें तो उन्होंने साफ मना कर दिया।

उन्होंने बताया कि उनकी दादी अस्पताल में हैं। मैंने कहा कि मेरी बात करा दें तो भी उन्होंने इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि वो इतना जानते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद उनकी दादी के पिता को ये इमारत मिली थी। उसके पहले के इतिहास के बारे में शायद वृद्ध महिला को ही पता हो। मैंने अपनी ई मेल आई डी और नम्बर उन्हें दिया और उनकी मेल आईडी लिख ली। वहां भारत की तरह लोकतांत्रिक माहौल नहीं था इसलिए वो लोग ज्यादा बात नहीं करना चाहते थे और शंकित थे कि कोई क्यों उनके घर के बारे में पता कर रहा है।
मैं वहां से वापस लौट आया। उसी दौरान जब मैं आन सांग सू की के पिता के म्यूजियम में गया तो एक कमरे में उनकी कुछ यादें संजो कर रखी थी जिसमें एक फोटो पर लिखा था कि वो भारत के क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस के मित्र थे और उन्होंने ही सुभाष बाबू को ऑफिस के लिए जगह उपलब्ध कराई थी। मेरे दिमाग में तस्वीर साफ हो गई। क्यों आजाद हिंद सरकार का मुख्यालय 51 यूनिवर्सिटी रोड में बनाया गया था।
आजाद हिंद की निर्वासित सरकार का मुख्यालय खोज कर मैंने कोई बड़ा काम नहीं किया। कोई भी भारतीय ये काम कर सकता है लेकिन सवाल ये है कि ये काम आम नागरिक को करना क्यों पड़ रहा है। आखिर किसी सरकार ने ये कोशिश क्यों नहीं की कि रंगून में नेताजी से जुड़ी जगहों का पता लगाया जाए। एक मूर्ति तक लगवाने की जहमत किसी ने क्यों नहीं उठाई। अगर इस जगह का संरक्षण हो जाए तो मैं अपना जीवन धन्य मानूंगा।
(जैसा यशवंत देशमुख ने बताया, उन्हीं के शब्दों में)

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Posted By: Abhishek Kumar Tiwari