उनको सुबह तड़के साढ़े चार बजे बेड टी दी जाती है. उन्हें नौ बजे नाश्ता और शाम सात बजे रात का खाना भी मिलता है.

चौबीस घंटे उनकी सेवा में भारतीय सेना के पाँच जवान लगे रहते हैं. उनका बिस्तर लगाया जाता है, उनके जूतों की बाक़ायदा पॉलिश होती है और यूनिफ़ॉर्म भी प्रेस की जाती है. इतनी आरामतलब ज़िंदगी है बाबा जसवंत सिंह रावत की, लेकिन आपको ये जानकर अजीब लगेगा कि वे इस दुनिया में नहीं हैं. राइफ़ल मैन जसवंत सिंह भारतीय सेना के सिपाही थे, जो 1962 में नूरारंग की लड़ाई में असाधारण वीरता दिखाते हुए मारे गए थे. उन्हें उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था. सेला टॉप के पास की सड़क के मोड़ पर वह अपनी लाइट मशीन गन के साथ तैनात थे. चीनियों ने उनकी चौकी पर बार-बार हमले किए लेकिन उन्होंने पीछे हटना क़बूल नहीं किया.

Jaswant Singh war memorial

चीनी मशीनगन शांत

जसवंत सिंह और उनके साथी लांसनायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गोसांई ने एक बंकर से क़हर बरपा रही चीनी मीडियम मशीन गन को शांत करने का फ़ैसला किया. बंकर के पास पहुँच कर उन्होंने उसके अंदर ग्रेनेड फेंका और बाहर निकल रहे चीनी सैनिकों पर संगीनों से हमला बोल दिया. चीनी मीडियम मशीन को खींचते हुए वह भारतीय चौकी पर ले आए और फिर उन्होंने उसका मुँह चीनियों का तरफ़ मोड़ कर उन्होंनें उनको तहस-नहस कर दिया. मैदान छोड़ने के बाद चीनियों ने उनकी चौकी पर दोबारा हमला किया. 72 घंटों तक लगभग अकेले मुक़ाबला करते हुए जसवंत सिंह मारे गए. कहा जाता है जब उनको लगा कि चीनी उन्हें बंदी बना लेंगे तो उन्होंने अंतिम बची गोली से अपने आप को निशाना बना लिया. उनके बारे में एक और कहानी प्रचलित है. पीछे हटने के आदेश के बावजूद वह 10000 फीट की ऊंचाई पर मोर्चा संभाले रहे. वहाँ उनकी मदद दो स्थानीय बालाओं सेला और नूरा ने की. लेकिन उनको राशन पहुँचाने वाले एक व्यक्ति ने चीनियों से मुख़बरी कर दी कि चौकी पर वह अकेले भारतीय सैनिक बचे हैं. यह सुनते ही चीनियों ने वहाँ हमला बोला. चीनी कमांडर इतना नाराज़ था कि उसने जसवंत सिंह का सिर धड़ से अलग कर दिया और उनके सिर को चीन ले गया. लेकिन वह उनकी बहादुरी से इतना प्रभावित हुआ कि लड़ाई ख़त्म हो जाने के बाद उसने जसवंत सिंह की प्रतिमा बनवाकर भारतीय सैनिकों को भेंट की जो आज भी उनके स्मारक में लगी हुई है.

मरने के बाद भी पदोन्नति
जिस स्थान पर उन्होंने मोर्चा संभाला था वहाँ पर उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है जहाँ पर उनके इस्तेमाल की जाने वाली अधिकतर चीज़ें रखी गई हैं. इस रास्ते से गुज़रने वाला चाहे जनरल हो या जवान, उन्हें श्रद्धांजलि दिए बिना आगे नहीं बढ़ता. जसवंत सिंह के मारे जाने के बाद भी उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लगाया जाता. वह भारतीय सेना के अकेले सैनिक हैं जिन्हें मौत के बाद प्रमोशन मिलना शुरू हुए. पहले नायक फिर कैप्टन और अब वह मेजर जनरल के पद पर पहुँच चुके हैं. उनके परिवार वाले जब ज़रूरत होती है, उनकी तरफ़ से छुट्टी की दर्खास्त देते हैं. जब छुट्टी मंज़ूर हो जाती है तो सेना के जवान उनके चित्र को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड के पुश्तैनी गाँव ले जाते हैं और जब उनकी छुट्टी समाप्त हो जाती है तो उस चित्र को ससम्मान वापस उसके असली स्थान पर ले जाया जाता है.

Posted By: Satyendra Kumar Singh