कश्मीर घाटी में पिछले 20 सालों से भारतीय शासन के खिलाफ लड़ने वाले स्थानीय विद्रोही अब चरमपंथ त्यागने के बाद वापस लौट रहे हैं.

कारण साफ है – पाकिस्तान सरकार का घटता समर्थन, ये आभास कि ‘कश्मीर जिहाद” का भविष्य अनिश्चित है और भारत सरकार की ओर से की गई माफी की पेशकश। पाकिस्तान-प्रशासित कश्मीर की राजधानी मुजफ़्फराबाद में रह रहे एक पूर्व चरमपंथी मोहम्मद अहसान का कहना था, “यहाँ रहने का कोई फायदा नहीं”।

अहसान भी वापस श्रीनगर जाने की तैयारी कर रहे हैं। वो कहते हैं, “जिहाद खत्म हो गया है और हमारा पीछा गरीबी कर रही है। यहाँ अनजान लोगों के बीच भीख मांगने से बेहतर है कि अपनी जमीन पर अपने लोगों के बीच रहा जाए.”

उन्होंने नेपाल की राजधानी काठमांडू जाने के लिए किसी तरह 130,000 पाकिस्तानी रुपए की व्यवस्था की है। वो अपनी पत्नी और दो बच्चों को भी वापस ले जा रहे हैं। नेपाल पहुँचने के बाद वो भारत के अंदर चले जाएँगे जहाँ से फिर उनकी श्रीनगर के लिए यात्रा शुरू होगी।

एक अनुमान के मुताबिक मुजफ्फराबाद के आसपास करीब 4,000 चरमपंथी फंसे हुए हैं। इनमें से कई वापस जाना चाहते हैं, लेकिन उनके पास वापस जाने के लिए साधन मौजूद नहीं है। गौरतलब है कि दोनो भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर तीन लड़ाइयाँ लड़ चुके हैं।

शुरुआत

वर्ष 1988 की शुरुआत से ही हजारों कश्मीरी युवकों ने नियंत्रण रेखा पार कर पाकिस्तान का रुख किया था। उन्हें गुरिल्ला लड़ाई लड़ने और हथियारों का प्रशिक्षण दिया गया ताकि वो भारतीय सैनिकों पर हमले कर सकें।

नब्बे के दशक में कश्मीर में चरमपंथ ने तेजी पकड़ी, लेकिन इन युवकों को इस बात से निराशा हुई जब पाकिस्तानी गुटों जैसे लश्कर-ए-तैबा, जैश-ए-मोहम्मद, अल-बद्र और हरकत-उल-मुजाहिदीन ने ‘कश्मीर जिहाद’ में प्रमुखता हासिल करनी शुरू की।

इन पाकिस्तानी गुटों के पास अधिक संसाधन थे जिसके कारण उन्होंने स्थानीय गुटों को पीछे छोड़ दिया। ये गुट विदेशी धार्मिक सिद्धांतों का प्रचार करते थे जो स्थानीय संवेदनशीलताओं से मेल नहीं खाते थे।

कुछ सालों बाद कई हजारों कश्मीरियों के मारे जाने के बावजूद भारतीय शासन जारी रहा और फिर चरमपंथ के बल पर चल रहे इस आंदोलन की निरर्थकता स्पष्ट होती गई। साथ ही पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव भी बढ़ा कि वो इन गुटों से समर्थन वापस ले। लेकिन अब आंदोलन के धीमे पड़ने के कारण ज्यादातर कश्मीरी लड़ाकुओं को ऐसा लग रहा है कि उनके पास करने को कुछ नहीं है।

जो लोग घर वापस जाने के लिए धन जुटा पाए, उन्होंने भारत सरकार की माफी योजना को जाँचने का निश्चय किया। वर्ष 2011 में करीब 100 चरमपंथियों ने पाकिस्तान छोड़ा और भारत की ओर चले आए।

इस तरफ के चरमपंथी इसे ध्यान से देख रहे थे कि भारतीय सैनिक इन चरमपंथियों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। एक दूसरे पूर्व चरमपंथी रफीक अहमद कहते हैं, “उनके साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ.” रफीक लौट रहे इन चरमपंथियों के संपर्क में थे। रफीक कहते हैं, “भारतीय पुलिस ने उनसे कुछ दिनों तक पूछताछ की और फिर छोड़ दिया। अब वो आम लोगों की तरह जिंदगी बिता रहे हैं.”

वजहपूर्व चरमपंथी गुलाम मोहम्मद कहते हैं कि वर्ष 2012 के पहले पाँच महीनों में ही करीब 500 लड़ाके वापस अपने घर आ चुके हैं। गुलाम मोहम्मद वापस लौट रहे चरमपंथियों के संपर्क में हैं। वो कहते हैं, “कई लोगों की शादी हो चुकी है और वो अपने परिवारों को भी वापस ले जा रहे हैं। इनकी संख्या करीब 1,500 के आसपास है.”

गुलाम मोहम्मद के मुताबिक पाकिस्तान से हर हफ्ते 10 से 15 लड़ाके अपने परिवारों के साथ पाकिस्तान छोड़ रहे हैं। वो पाकिस्तानी पासपोर्ट पर काठमांडू जाते हैं। वहाँ से वो भारत के अंदर चले जाते हैं।

कश्मीर पहुँचकर वो स्थानी पुलिस के पास अपने आने की पुष्टि करते हैं। वो कहते हैं, “काठमांडू से आने के दो फायदे हैं। काठमांडू के रास्ते चरमपंथियों को भारत भेजने के लिए पहले भी इस रास्ते का इस्तेमाल किया जा चुका है। साथ ही ये बात सभी की नजरों में आने से भी बची रहती है.”

कश्मीरियों के वापस आने का कारण है उन्हें कथित तौर पर पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों से धन नहीं मिल पाना। सूत्रों के मुताबिक वर्ष 2006 में पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भारतीय कश्मीर में ऑपरेशन करने वाले गुटों को पैसा दिए जाने पर रोक लगा दी थी। हाल में इन गुटों को मिलने वाली राशि में और कटौती की गई है। पाकिस्तान के मुताबिक वो कश्मीरी चरमपंथियों को मात्र नैतिक और कूटनीतिक समर्थन देता है।

Posted By: Inextlive