बारिश और बाढ़ के बाद दर्जनों एरिया बन जाते हैं टापू घरों में कैद होकर रह जाते हैं लोग बच्चे नहीं जा पाते स्कूल

वाराणसी (ब्यूरो)मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो जितनी ज्यादा गर्मी पड़ेगी, बारिश भी उतनी ही अधिक होगी। इस बात से इत्तेफाक रखने वाले लोग अभी से परेशान होने लगे हैं। मानसून आने में अब महज कुछ दिन ही शेष बचे हैं। ऐसे में लोग पिछले साल के हालात को भी याद कर रहे हैं। ऐसा इसलिए कि उस साल जलजमाव ने शहरवासियों को हर तरफ से डिस्टर्ब किया था। लोगों के काफी आर्थिक क्षति पहुंची थी। खासकर उन इलाकों में जिनके घर गंगा के आसपास में बने हुए थे। यहां हर साल जलभराव से लोगों के लाखों रुपये के सामान खराब हो जाते हैं। साथ ही कई तरह की संक्रामक बीमारियां भी फैलती हैं। दैनिक जागरण आईनेक्स्ट ने डूबेगा या बचेगा अभियान के तहत उन एरिया की पड़ताल की, जहां बारिश के मौसम में इलाके टापू बन जाते हैं।

हर साल झेलनी पड़ती है मुसीबत

नगर निगम की ओर से बारिश से पहले सभी वार्ड के नाला-नालियों और मेनहोल की सफाई कराने का दावा किया जाता है, लेकिन बारिश के बाद अलग-अलग एरिया में होने वाले जलभराव के बाद निगम के दावों की पोल पलभर में खुल जाती है। शहर में एक-दो नहंी, दर्जनों ऐसे इलाकों के गली-मुहल्ले हैं, जहां एक बार पानी भर जाए तो लोगों की मुसीबत बढऩी तय हो जाती है। अगर बाढ़ आ जाए तो इनकी क्या हालत हो जाती है, यह किसी से छिपा नहंी है। कई सप्ताह तक लोगों के घर उसी पानी में डूबे रह जाते हैं। महीनों तक लोग घरों में कैद हो जाते हैं। बच्चे स्कूल नहीं जा पाते तो नौकरी और व्यापार करने वालों का कामकाज पूरी तरह से ठप हो जाता है।

टापू बन जाते हैं ये मुहल्ले

शहर के सामनेघाट, नगवां, लंका, नरिया, अस्सी, महेश नगर कॉलोनी, नक्खी घाट, अलईपुर, संकटमोटन, सुंदरपुर समेत कई स्थानों के लोगों को अभी से यह चिंता सताने लगी है कि इस बार भी बारिश और बाढ़ का पानी उनके घरों तक आ जाएगा तो उनका जिना दूभर हो जाएगा। बाढ़ के बाद गंगा का वाटर लेवल बढऩे के साथ ही उफान मारता गंगा का पानी उक्त गली-मुहल्लों तक पहुंच जाता है। जिसके बाद ये सब एरिया टापू में तब्दील हो जाते हैं। बाढ़ की वजह से यहां नदी और नालों का फर्क पूरी तरह से मिट जाता है। इन क्षेत्रों का बड़ा नाले ठीक से साफ न होने से बारिश में ही चोक कर जाते हैं। कुछ नालों के संकरे व जर्जर हालत में होने की वजह से भी ऐसी स्थिति होती है.वहीं बॉक्स नाले की सफाई सही तरीके से नहीं होने के कारण आसपास आधा दर्जन मोहल्लों में जलजमव हो जाता है।

घर से निकलना हो जाता है मुश्किल

अलईपुर, नक्खीघाट और सुग्गागढ़ही, कज्जाकपुरा, सरईया व कोनिया में बाढ़ आने के बाद लोगों का घर से निकलना मुश्किल हो जाता है। तीन लाख से ज्यादा आबादी वाले ये तीनों मुहल्ले हर साल प्रकृति की मार का दंश झेलते हंै। पूरा इलाका लबालब पानी से भर जाता है। वहीं नगवां और सामने घाट की बात करें नगर निगम क्षेत्र में शामिल होने के करीब दो दशक बाद भी ये एरिया जलजमाव का दंश झेल रहा है। मानसून शुरू होने के बाद अगले तीन-चार महीने तक मोहल्ले से पानी नहीं निकल पाता। वजह यह क्षेत्र पूरी तरह से गंगा से सटा हुआ है। इसके चलते बाढ़ आने पर यहां के लोगों को घर छोड़कर जाना पड़ जाता है।

सुधर जाती व्यवस्था तो नहीं होती परेशानी

ड्रेनेज सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए कई करोड़ खर्च होने के बाद भी ड्रेनेज और सीवरेज नेटवर्क फेल हो जाते हैं। कई नाले आपस में जुड़े नहीं है। जल निगम और नगर निगम के बीच हमेशा से जारी खींचतान का खामियाजा आज पूरा शहर भुगत रहा है। 2008 में केंद्र और राज्य सरकार द्वारा जेएनएनयूआरएम के तहत स्टार्म वॉटर ड्रेनेज (एसडब्ल्यूडी) परियोजना को मंजूरी दी गई थी। परियोजना का उद्देश्य जल निकासी और सीवेज लाइनों को अलग करने के अलावा शहर को जलभराव की समस्या से बचाने के साथ भूमिगत जल को रिचार्ज कर जलनिकासी की सुविधाओं में सुधार करना था। परियोजना की शुरुआती स्वीकृत लागत 191.62 करोड़ रुपए थी। बाद में इसे संशोधित कर 252.73 करोड़ रुपए कर दिया गया था। बावजूद इसके न काम पूरा हुआ, न व्यवस्था सुधर पाई।

2011 में पूरा होना था परियोजना का काम

28 महीने में यानी दिसंबर 2008 से काम शुरू कर मार्च 2011 में पूरा कर देना था, लेकिन परियोजना पूरी नहीं हो सकी। वहीं, जल निगम के अधिकारी दावा करते रहे कि यह परियोजना 2015 में पूरी हो गई थी और शहर के लोगों ने एक-दो साल के लिए जलभराव की समस्या से राहत का भी अनुभव किया था। हालांकि, जल निगम धनराशि की कमी के कारण एसडब्ल्यूडी लाइनों को बनाए रखने में विफल रहा।

92 करोड़ खर्च, स्थिति जस की तस

वाराणसी की सीवर व्यवस्था 200 साल बाद भी अंग्रेजों के जमाने में जेम्स प्रिंसेप द्वारा बनाए गए शाही नाला के भरोसे है। 2015 तक इस नाला की किसी को याद नहीं आई थी। इसके बाद नाले की सफाई का काम जल निगम की गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई की देखरेख में जापान इंटरनेशनल कोआपरेशन एजेंसी (जायका) को दिया गया। इस नाले की सफाई में 92 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। 2015 से शुरू हुआ नाला सफाई का काम 2017 में पूरा होना था, लेकिन अब भी काम जारी है।

बारिश के पानी की वजह से लंबे समय तक जलभराव नहीं होता। बाढ़ आने के बाद जब गंगा नदी उफान पर होती है तो उसके किनारों पर बसे मुहल्लों का सीवर भी फेल हो जाता है। फिर भी हमारा पूरा प्रयास रहता है वहां जलभराव की स्थिति न हो। पानी निकालने के लिए मशीनों का इंतजाम कराया जाता है।

एनपी सिंह, नगर स्वास्थ्य अधिकारी, नगर निगम

जब तक ठीक तरीके से बड़े-बड़े नालों की सफाई नहीं होगी, तब तक शहर में जलभराव की समस्या से निजात नहीं मिलेगी। सफाई के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति भर ही होती है।

अनूप राव, कोनिया

कोनिया, कज्जाकपुरा और इससे सटे कई मुहल्ले हर साल बाढ़ में डूब जाते हैं। लेकिन आज तक इस दिशा में न कोई ठोस पहल हुआ और न काम। लोग महीनों तक घरों में कैद होकर रह जाते हैं.

अरुण सिंह, कज्जाकपुरा

Posted By: Inextlive