कला और कमाई भले ही यह दोनों अलग-अलग हों लेकिन गुजरते समय के साथ अब इनमें एक गहरा रिश्ता हो गया है. सिनेमा का शुरुआती दौर गोल्डन पीरियड था. उस समय फिल्में बनाने वाले कला प्रेमी, साहित्यकार हुआ करते थे लेकिन अब इस फील्ड में बिजनेसमैन उतर आए है. एक समय था जब फिल्मों के विषय सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों से संबंधित होते थे. यही नहीं समाज में फैली भ्रांतियों और सामाजिक कुप्रथाओं पर चोट करने का सशक्त माध्यम थीं फिल्में. क्योंकि फिल्में दर्शकों से सीधा संवाद करती हैं लेकिन आज ऐसा नहीं है.
आज की फिल्में
आज फिल्मों की कहानी कुछ कहती है, संगीत कुछ और कहता है और दर्शक कुछ और चाहता है. फिल्म के डायरेक्टर्स फिल्मों से सिर्फ कमाई चाहते हैं. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो दर्शकों को क्या परोस रहे हैं. ऐसा नहीं कि पुराने जमाने के डायरेक्टर फिल्म बनाकर कमाना नहीं चाहते थे. सत्यजीत रे, महबूब खान और गुरुदत्त जैसे डायरेक्टर्स ने समाज से जुड़ी हुई बेहतरीन फिल्में बनाई हैं, जो बहुत चली भी हैं लेकिन आज के डायरेक्टर्स और उस जमाने के डायरेक्टर्स में बस फर्क इतना है कि वह पैसा इसलिए कमाते थे कि एक और अच्छी फिल्म बनाई जा सके जबकि आज के ज्यादातर डायरेक्टर्स यह देख कर फिल्में बनाते हैं कि इससे उनका कितना फायदा होगा. फिर भले ही वह फिल्म कैसी भी हो.
सिनेमा का दुर्भाग्य
सिनेमा का ये सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उसे ऐसा समय भी देखना पड़ रहा है. बॉलीवुड में कॉमशर््िायलाइजेशन आज से नहीं शुरू हुआ है, अद्र्धसत्य और आक्रोश जैसी फिल्में भी कॉमर्शियल थीं. लेकिन इन फिल्मों ने अपनी सफलता के लिए कभी कंप्रोमाइज नहीं किया. इंडिया में आज भी फिल्मों का एक अपना मुकाम है. यहां पर फिल्म देखने के लिए बच्चे, यंगस्टर्स और बुजुर्ग यहां तक कि पूरी फैमलीज एक साथ सिनेमा हॉल जाती हैं. अगर हम उनको फूहड़ता और अश्लीलता परोसेंगे, तो उनकी सोच पर वैसा ही असर पड़ेगा.
गानों को लेकर
फिल्मों के साथ-साथ कुछ ऐसा ही ट्रेंड गानों में भी शुरु हो गया है. आजकल के गानों में शोर ज्यादा होता है मगर उनके बोल समझ में नहीं आते हैं. पहले के डायरेक्टर उस गाने को चुनते थे जो सिचुएशन पर फिट बैठते थे. फिर उसके बाद ही उनको फिल्म में डाला जाता था. मगर आज इसका उल्टा है. फिल्म की सिचुएशन तो बहुत दूर की बात है, फिल्म को हिट कराने के लिए उसमें आइटम नम्बर डाले जाते हैं, ताकि अगर स्टोरी दर्शकों को अपनी ओर न खींच सकें तो कम से कम आइटम नम्बर देखने के लिए ही दर्शक खिंचे चले आएं, जिसको देखो आज वह गानों में मुन्नी और शीला मांगता है या फिर फिल्म हिट कराने के लिए गालियों का सहारा ले रहा है.
बॉक्स ऑफिस पर कितनी कमाई की है..
अब डायरेक्टर्स को सिर्फ एक ही चीज से मतलब है फिल्म हिट हो और कमाई ज्यादा हो. यही वजह है कि पहले दर्शकों की भीड़ देख कर कहा जाता था कि फिल्म हिट है. अब यह देख कर फिल्म को हिट कहा जाता है कि उसने बॉक्स ऑफिस पर कितनी कमाई की है. कॉमर्शियल होना बुरा नहीं है लेकिन पैसा कमाने के लिए एक स्तर से नीचे गिर जाना बुरा है. ऐसा नहीं है कि सब डायरेक्टर्स ही इसी ट्रेंड की तरफ भाग रहे हैं आज भी बहुत से डायरेक्टर्स ऐसे हैं जो समाज को बेहतरीन फिल्मों से रू-ब-रू करा रहे हैं.
उनकी फिल्में हिट भी हो रही हैं. और वो पैसा भी कमा रहे हैं मगर ऐसे डायरेक्टर की गिनती कम है. यही वजह है कि श्याम बेनेगल और गोविंद निलहानी जैसे डायरेक्टर्स के पास आज फिल्में नहीं हैं और वह खाली बैठे हैं, क्योंकि इन्होंने फिल्मों के साथ कंप्रोमाइज नहीं किया. यह डायरेक्टर समाज को एक अच्छी फिल्म तो दे सकते हैं लेकिन कॉमर्शियलाइजेशन के नाम पर अश्लीलता और फूहड़ता नहीं परोस सकते.
पैसे कमाना कोई बुरी बात नहीं है, सबको कमाना चाहिए क्योंकि इससे हमारा परिवार चलता है. मै भी कॉमर्शियल मूवीज करता हूं क्योंकि मुझे भी अपना घर-परिवार चलाना है लेकिन इसके लिए अगर मैं अपने ज़मीर से सौदा कर लूं तो यह बुरा होगा. इसलिए मेरा मानना है कि कॉमर्शियलाइजेशन बुरा नहीं है लेकिन पैसा कमाने की होड़ ने इसका स्तर हद से ज्यादा गिरा दिया है. अगर कोई चीज हद से ज्यादा गिर जाती है तो वह बुरी बन जाती है.In conversation with Abbas Rizvi
Bollywood News inextlive from Bollywood News Desk