चींटी से डंक मरवाते
बस्तर विश्वविद्यालय की एक शोधार्थी माधवी तिवारी बस्तर के आदिवासी इलाके में शोध कर रही हैं. अब तक हुए शोध के मुताबिक बस्तर के आदिवासी पीलिया होने पर चापड़ा से इलाज करते हैं. जब वह चींटी से डंक मरवाते है तो उनके शरीर का पीलापन काफी हद तक कम हो जाता है और पीलिया पूरी तरह से ठीक हो जाती है. यही नहीं चापड़ा की चटनी का उपयोग करते हैं, साथ ही साथ पेट की बीमारियों सहित कंजक्टिवाइटिस का भी इसी से इलाज करते आ रहे हैं. चापड़ा चींटी का वैज्ञानिक नाम इकोफिला स्मार्ग डिना है. बस्तर विश्वविद्यालय में शिक्षिका माधवी तिवारी कहती हैं कि बड़ेमुरमा, गोलापल्ली और करंजी में सरपंचों के सहयोग से पीलिया पीड़ितों पर इसका प्रयोग किया जा सका. उन्होंने बताया कि इन चींटियों में फार्मिक एसिड होता है. जब पीलिया के मरीजों के शरीर में चीटिंयों को छोड़ा जाता है तो इससे शरीर के पिग्मेंट में स्त्रोत होने वाले बिलरूबिन से ऑक्सीडेशन होते पाया गया है. यहां पर लोगों की अधिकांश बीमारियां चापड़ा से ठीक होती हैं.

चटनी बनाकर बेचते
गौरतलब है कि बस्तर के आदिवासियों के भोजन के साथ चापड़ा की चटनी (लाल चींटें) साधारण दिनों में खूब खायी जाती है. खासतौर पर लजीज और औषधीय मानी जाती है. 'चापड़ा की चटनी' इतनी अधिक लोकप्रिय है कि बस्तर के हाट-बाजारों में बिकती है.बताते चले कि बस्तर के जंगलों में लाल चींटों चापड़ा पेड़ों में खूब पाए जातेह हैं. वहां पर इनकी अधिकता है. ग्रामीण जंगल जाकर पेड़ के नीचे, गमछा, कपड़ा आदि बिछाकर पेड़ की शाखाओं को हिलाते हैं, जिससे चापड़ा नीचे गिरते हैं और उन्हें इकट्ठा कर बाजार में ऐसे या चटनी बनाकर बेचते हैं. वहां पर चापड़ा का बिजनेस काफी तेजी से हो रहा है और वहां लोग इसे फायदे का व्यवसाय मानते हैं.

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