स्पोर्ट्स में डिसिप्लिन सबसे इम्पार्टेंट चीज है. 2 बार के ओलंपिक मेडलिस्ट सुशील कुमार से जब आई नेक्स्ट ने बात की तो उन्होंने इसी बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया. सुशील का कहना है कि यह डिसिप्लिन केवल खेल के मैदान पर ही नहीं हो, प्लेयर की लाइफ और उसकी थिंकिंग दोनों ही में डिसिप्लिन बहुत जरूरी है. अगर फोकस नहीं हुआ तो सक्सेस कहां से आएगी.

सक्सेस के लिए लगन जरूरी

खेल में आज भारत का जो कद है वो रातों-रात या एक दिन में नहीं बना है. इसके पीछे खिलाडिय़ों की कई वर्षों की कड़ी मेहनत और लगन छिपी है, जिन्होंने अभावों और तमाम मुश्किलों के बावजूद खेलों के प्रति अपना फोकस बनाए रखा. दरअसल आज भारत अगर खेलों में खुद को सफल कह पा रहा है तो ऐसे ही खिलाडिय़ों की बदौलत. साइना, मैरीकॉम, योगेश्वर, गगन और विजय जैसे खिलाडिय़ों ने पैसे की चमक-दमक और बाहरी दुनिया की परवाह किए बगैर अपना सबकुछ अपने खेल में झोंक दिया और नतीजा आपके सामने है. मेरा मानना है कि खेलों में मेडल जीतने के लिए सिर्फ सुविधाएं और पैसा जरूरी नहीं है, बल्कि जरूरत है परिश्रम और विश्वास की, जो आज की युवा पीढ़ी में देखने को मिल रहा है. यह पीढ़ी सिर्फ खेलना नहीं चाहती, बल्कि जीतना भी चाहती है. यकीन मानिए अगले ओलंपिक गेम्स में हम दो या चार नहीं बल्कि बीस से अधिक मेडल जीतकर लौटेंगे.

सपने देखो और उन्हें पूरा करो

मैं अगर अपनी बात करूं तो सुबह 5 बजे उठकर सबसे पहले अभ्यास करता हूं. शाम के सात बजे तक सो जाता हूं. किसी पार्टी में नहीं जाता. लोगों से कम ही मिलता हूं. मैं जानता हूं कि लोग मुझे अपना हीरो मानते हैं, वो मुझसे मिलना चाहते हैं. देश भर से लोग मुझे बुलाते हैं, लेकिन अगर जरूरी नहीं तो मैं इन सब चीजों से दूर ही रहता हूं. मुझे पता है कि मैंने क्या खोया था. लंदन ओलंपिक में मुझे गोल्ड जीतने का भरोसा था, लेकिन एक चूक ने मेरे इस सपने को चकनाचूर कर दिया. अब रियो ओलंपिक में मैं इस सपने को जीना चाहता हूं और मुझे मालूम है कि अगर मेरा फोकस हटा तो यह मुमकिन नहीं होगा. इसलिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता. मैं अपने साथियों को भी ऐसा ही करने की सलाह देता हूं. मैं उनसे कहता हूं कि सपने सिर्फ देखो नहीं, सपने पूरे करने की ख्वाहिश भी रखो.  

जीतने वाला ही सिकंदर

खिलाडिय़ों में कांप्टीशन की भावना होती है, लेकिन ये कांप्टीशन रिंग या मैदान में होना चाहिए. इसके बाहर नहीं. मसलन, कई लोग हमारे खेल की तुलना क्रिकेट से करते हैं. बेशक, भारत में क्रिकेट को बहुत ज्यादा तवज्जो दी जाती है, लेकिन इस खेल का हमारे खेल से कोई कांप्टीशन नहीं. क्रिकेट के अपने प्रशंसक हैं और दूसरे खेलों के अपने. हो सकता है कि किसी को क्रिकेट भी पसंद हो और कुश्ती भी. मैं खुद भी क्रिकेट देखता हूं, लेकिन कुश्ती मेरा फेवरिट खेल है. इसी तरह अक्सर दूसरे खेलों के खिलाड़ी भी कुश्ती देखना पसंद करते हैं. जब हमने कुश्ती को अपनाया तो कई लोगों ने कहा कि यह खेल शौक के लिए तो ठीक है, लेकिन इसे प्रोफेशन मत बनाना. अब जब भारत ने ऐसे ही खेलों में 6-6 मेडल जीते हैं तो आलोचना और तुलना बंद हो चुकी है. अब जब मैं अखाड़े में जाता हूं तो मुझे कुश्ती सीखने वाले युवाओं की भारी भीड़ दिखती है. लोग हमारे पीछे आते हैं. हो सकता है कि हमारा खेल छोटा है और ज्यादा पॉपुलर नहीं, लेकिन खेल तो खेल ही होता है और यहां भी जीतने वाला ही सिकंदर होता है.

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