इलाहाबाद की प्राचीन परंपराओं में शुमार गहरेबाजी (इक्का दौड़) का इस बार नहीं हुआ आयोजन

अब तक सावन के प्रत्येक सोमवार को किया जाता रहा है आयोजन, निराश हुए शौकीन

ALLAHABAD: इलाहाबाद की प्राचीन परंपरा में शुमार गहरेबाजी (इक्का दौड़) पर इस वर्ष प्रशासन की लापरवाही से ब्रेक लग गया। इससे सावन के पहले सोमवार को इसके शौकीन काफी निराश हुए। अब इसकी शुरूआत सावन के दूसरे सोमवार से होने की संभावना है।

होता है लोगों का जमावड़ा

गौरतलब है कि इलाहाबाद में हर वर्ष मेडिकल चौराहे से सीएमपी तक गहरेबाज अपने घोड़ों को बग्घी से बांधकर दौड़ाते हैं। इसे देखने के लिये बड़ी संख्या में लोगों का जमावड़ा लगता है। लोगों को उम्मीद थी कि सावन के पहले सोमवार को उन्हें एक बार फिर यह दौड़ देखने को मिलेगी, लेकिन प्रशासन और पुलिस विभाग की लापरवाही से इसकी शुरूआत नहीं हो सकी। प्रयाग गहरेबाजी संघ के राजीव भारद्वाज का कहना है कि संघ की ओर से डीएम, स्थानीय विधायक और मंत्रियों को टै्रफिक की व्यवस्था के लिये पत्र लिखा गया था। लेकिन प्रशासन की ओर से कोई उत्तर नहीं दिया गया।

तो नहीं लिया रिस्क

राजीव भारद्वाज ने बताया कि व्यवस्था न होने के चलते बारिश के मौसम में घोड़ों को दौड़ाने का रिस्क नहीं लिया गया। उन्होंने बताया कि गहरेबाजी के शौकीन दूरदराज से आते हैं और काफी भीड़ जुटती है, इसलिए अब प्रशासन को चाहिये कि इसके लिये अलग से चार-पांच किलोमीटर का स्थान निर्धारित कर दे। उन्होंने कहा कि यदि उचित व्यवस्था दी गई तो बग्घी की सवारी लोगों को सावन के दूसरे सोमवार को शाम पांच बजे से देखने को मिलेगी।

तैयार था बग्घी का पेशावर मॉडल

गहरेबाजी की परंपरा ने मुगलकाल में खासा जोर पकड़ा। उस समय के शासकों में बग्घी पर घुड़सवारी को लेकर खासा जोश होता था। पाकिस्तान के पेशावर में भी यह शौक खासा प्रचलन में रहा है। सावन के सोमवार पर लोगों को गहरेबाजी के दौरान घोड़ों के पीछे जो बग्घी सरपट दौड़ती देखने को मिलती है, उसका मॉडल भी पेशावर से ही डिजाइन किया गया था। राजीव भारद्वाज ने बताया कि दिल्ली के उस्ताद रईस अहमद कुरैशी और मुट्ठीगंज के गोपाल महाराज में अच्छी दोस्ती थी। उस्ताद रईस ने ही पेशावर मॉडल की बग्घी तैयार कराई थी। इसे गोपाल महाराज के सहयोग से इलाहाबाद की गहरेबाजी में शामिल किया गया।

12 माह में 12 लाख खर्च

भारद्वाज ने बताया कि इलाहाबाद में गहरेबाजी हिन्दू-मुस्लिम एकता की बेजोड़ मिसाल है। दोनों धर्म के लोग अपने घोड़ों को इसमें शामिल करते हैं। घोड़ों की खासियत है कि सभी पाकिस्तान के सिंध प्रांत नस्ल के हैं। इन्हें राजस्थान के बलुत्तरा में लगने वाले सबसे बड़े मेले से खरीदा जाता है। इनकी देखरेख और खानपान पर एक माह में कम से कम एक लाख रूपये और साल में तकरीबन 12 लाख रूपये खर्च होते हैं। अच्छी नस्ल के घोड़ों को खाने के लिये घास, कई किलो चना, जई का दाना, कई लीटर दूध, घी, मक्खन, मलाई आदि दिया जाता है। सावन में दौड़ने वाले घोड़ों की सिंधी चाल और मादरी चाल की कीमत होती है। इस बार दौड़ में अबलक, कुम्मैद, सब्जा, काला, नोखरा आदि घोड़े प्रतिभाग करेंगे। इनके मालिक शमीम बेली, पप्पु बेली, पप्पु मलावां, लाल जी यादव, मुरारी महाराज, विष्णु शर्मा, बदरे आलम, गुड्डु, काके पंजाबी, लखन चौरसिया आदि हैं।