आरयू का रिसर्च स्कॉलर बना सड़क पर पड़े लावारिस, बीमार, बेघर लोगों का रहनुमा

बरेली में एक साल में 5 लावारिस लोगों को सड़क से उठा हॉस्पिटल में कराया इलाज

पंजाब, पं। बंगाल और हरिद्वार में जाकर बिछड़ों को परिवार से मिला दिलाई नई जिंदगी

BAREILLY:

ऐसे दौर में जब किसी अंजान, लावारिस, बेघर और बीमार के लिए न सिर्फ दिल में संवेदना जगाना बल्कि उसके लिए मीलों का सफर तय करना फिजूलखर्ची और सनकपन ही माना जाए। उस संवेदना शून्य हो रहे दौर में बरेली में एक ऐसा ही युवा रिसर्च स्कॉलर है, जो सड़क पर लावारिस करार दिए गए बीमार इंसानों को उनके बिछड़े परिवारों से मिलाने की नामुमकिन कोशिश को मुमकिन बना रहा। बिना किसी आर्थिक मदद और दोस्त-साथियों की सपोर्ट के बिना वह अकेले ही 3 लावारिस व गंभीर रूप से बीमार गुमशुदा इंसानों को पंजाब, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में बसे उनके परिवार से मिला एक नई जिंदगी दिला चुका है। बाकी दो को मिलाने की कोशिशें जारी हैं। आरयू के रिसर्च स्कॉलर शैलेश कुमार शर्मा की इस बेहद चुनौती भरी, लेकिन इंसानियत को जिंदा रखने की मुहिम समाज को सिर्फ स्मार्ट ही नहीं संवेदनशील बनने और जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे बढ़ने की सीख दे रही।

एक साल पहले शुरू की मुहिम

बरेली के पशुपति विहार में रहने वाले 27 साल के शैलेश ने ठीक एक साल पहले 11 अगस्त 2014 को अपनी यह मुहिम शुरू की। शैलेश आरयू से पीएचडी कोर्स कर रहे हैं। 11 अगस्त 2014 को शहर के दोहरा चौराहे से एक लावारिस को उठाया। उसे हॉस्पिटल में एडमिट करने के बाद उसके परिजनों को तलाशने की कोशिशें शुरू की। इसके बाद तो ऐसे बेबस व बेघर लोगों की मदद का सिलसिला शुरू हो गया। एक साल के अंदर ही शैलेश ने बरेली शहर से 5 लावारिसों को सड़क से उठाकर उन्हें पहले हॉस्पिटल में इलाज दिलाया। इसके लिए प्रशासन के चक्कर काटने से लेकर दूसरे राज्यों में इलाज की व्यवस्था तक की। मानसिक रूप से बीमार और अपने शहर से सैंकड़ों मील दूर इन्हीं 5 में से तीन को एक साल के अंदर ही परिवार से मिलाया।

मेंटल हॉस्पिटल में िमली प्रेरणा

सायकॉलजी का स्टूडेंट रहते हुए शैलेश को 2009 में मेंटल हॉस्पिटल में इंटनर्शिप करने का मौका मिला। अपने विषय मास्टर इन अप्लाइड इन क्लिनिकल सायकॉलजी में केस स्टडीज के लिए शैलेश को मानसिक रूप से बीमार मरीजों के साथ समय गुजारना था। इन मरीजों में से कुछ को ठीक होने पर उनके परिजन घर ले जाते। लेकिन कई ऐसे थे जो रोटी, कपड़ा और छत जैसी बुनियादी जरूरत पूरी होने के बावजूद अपने परिवार के लिए छटपटाते थे। परिवार से दूर होने की तकलीफ उनके चेहरे पर झलकती थी। मरीजों की इसी तकलीफ ने शैलेश को सड़क पर बेसहारा गुमशुदा लोगों को उनके परिजनों से मिलाने की प्रेरणा और ताकत दी।

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केस -1

14 साल का वनवास फिर मिला परिवार

11 अगस्त को पीलीभीत रोड दोहरा चौराहे पर शैलेश को हरमेश कुमार शर्मा लावारिस हालत में मिले। मानसिक रूप से बीमार हरमेश को शैलेश ने मेंटल हॉस्पिटल में एडमिट कराया। कुछ दिन इलाज के बाद बातचीत में हरमेश ने अपना पता पिंड पंजाब बताया। बस इसी के सहारे शैलेश ने अकेले अपने दम पर अपने खर्च से पंजाब जाकर हरमेश के परिवार की खोज खबर की। एक साल चली मुश्किल तलाश के बाद शैलेश ने आखिरकार हरमेश के परिजनों के भटिंडा के पिंड में ढूंढ निकाला। वहीं मालूम चला कि हरमेश नेशनल हाइवे का ट्रक ड्राइवर था और पिछले 14 साल से गुमशुदा थे। वाइफ के छोड़ देने के शॉक से वह अपना मानसिक संतुलन खो 14 वर्षो में पंजाब से बरेली पहुंच गए। इन 14 वर्षो में परिजन हरमेश के जिंदा रहने की उम्मीद भी खो चुके थे। उसे मिलने की खबर पाकर हरमेश की मामी और भाई बरेली मेंटल हॉस्पिटल पहुंचे और 4 अगस्त को हरमेश को अपने संग ले गए.

केस -2

बच्चों को मिला पिता का साया

15 दिसंबर 2014 को आरयू के सामने भिखारी जैसी हालत में मांगीराम कश्यप गैंगरीन बीमारी से बेहद गंभीर रूप पीडि़त हालत में शैलेश को मिले। पेशे से मजदूर 37 साल के मांगीराम रुड़की हरिद्वार के सलेमपुर गांव के रहने वाले थे। घर में मां-बाप, बीवी और चार छोटे बच्चे थे, जब शैलेश सवा साल से गुमशुदा हुए। शैलेश ने मांगीराम को मेंटल हॉस्पिटल में एडमिट कराना चाहा, लेकिन दाएं पैर में गैंगरीन के चलते उन्हें एडमिट नहीं किया गया। इसके बाद मांगीराम को इलाज के लिए डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल ले जाया गया। लेकिन यहां डॉक्टर्स ने दायां पैर काटने की बात कही। शैलेश चाहते तो मरीज की जान बचाने के लिए डॉक्टर की बात मान लेते, लेकिन ऐसा न कर शैलेश मांगीराम को अपने खर्च पर राजस्थान के भरतपुर ले गए। यहां एक एनजीओ की मदद से मांगीराम का इलाज कराया। ठीक होने पर मांगीराम को 17 जुलाई 2015 को उसके घर पहुंचाया। बेटे और पति को जिंदा देख मांगीराम के मां-पिता और बीवी लिपट कर रोए। मांगीराम ने 8 महीने बाद अपनी दुधमुंही बच्ची को देखा.

केस -3

फिर से मिली नई जिंदगी

9 फरवरी 2015 को डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल के पास शैलेश को दीपक दास लावारिस हालत में मिले। दीपक दास मिदनापुर में लॉटरी का काम करता था। मिदनापुर से दिल्ली नौकरी के लिए दीपक घर से गया और फिर उसका कुछ पता न चला। दिमागी हालत ठीक न होने पर शैलेश दीपक को मेंटल हॉस्पिटल इलाज के लिए ले गए। लेकिन कमर में घाव होने पर इन्हें भी एडमिट करने से इनकार कर दिया गया। इस पर शैलेश दीपक को मुंबई स्थित एक एनजीओ के जरिए इलाज के लिए ले गए। कुछ दिन के इलाज के बाद दीपक ने मिदनापुर पं। बंगाल में अपना घर बताया। शैलेश ने इस बार भी अपने दम पर ही दीपक के परिजनों को तलाश करने का बीड़ा उठाया। साढ़े तीन महीने की तलाश के बाद 31 मई 2015 को दीपक दास को पं। बंगाल मिदनापुर उनके परिजनों से मिलाया। दीपक अब ठीक है और फिर से कामकाज में लग गया है।

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एक जिंदगी जीने जैसा है, एक परिवार मिलाना - प्रोफाइल

औरों की तरह स्कॉलर शैलेश शर्मा के सामने भी शानदार कॅरियर का विकल्प तैयार था। औरों की तरह वह भी सिर्फ और सिर्फ अपने कॅरियर पर फोकस कर कामयाबी की उंचाई नाप सकते थे, लेकिन उन्होंने 'आर्टिफिशियल' लगने वाली लाइफ की जगह बेघर लावारिसों को परिवार से मिलाने वाली असल कोशिशें भरी 'रियल लाइफ' जीने का ऑप्शन.चुना बतौर शैलेश शुरू से ही इस काम के लिए दोस्तों का सपोर्ट न मिला। परिवार भी साथ न था। दूसरों के लिए मेहनत करने पर माता-पिता परेशान थे कि कहीं इसी सब में उलझ कॅरियर खराब न कर ले। लेकिन शैलेश इससे डिगा नही। रिसर्च पेपर और प्रोजेक्ट बनाने से होने वाली इनकम से ही अपनी मुहिम को ईधन दिया। घर से न सपोर्ट लिया न पैसे, जिन्हें उनके परिजनों से मिलाया उनसे भी एक पैसा तक न लिया। सारा खर्च खुद उठाया।

शैलेश कहते हैं 'एक गुमशुदा को उसके परिवार से मिलाने पर एक जिंदगी जीने जैसा सुख मिलता है। लेकिन न जाने हम कौन से युग में जी रहे जो इंसान सड़क पर पड़े एक इंसान की मदद को ही आगे नहीं आते'।