देश पर मर मिटने के इस जज्बे पर बरेली की धरा को नाज

आर्मी डे यानी जांबाजों की बहादुरी और शहादत को याद करने का खास दिन। बरेली की धरा ने भी देश के लिए जान छिड़कने वाले कई वीर सपूतों को जन्म दिया। युद्ध के मैदान क ो अपनी कर्मभूमि बनाने वाले सैनिकों और देश पर मर मिटने वाले शहीदों की फैमिली से आई नेक्स्ट ने मुलाकात की। असल में ऐसे जांबाजों के जज्बे को शब्दों में बयां करना शायद   मुमकिन नहीं है पर उनके त्याग को याद पर सम्मान के साथ सिर झुका कर गर्व के साथ उन्हें सलामी दे सकते हैं। आइए आपको भी रूबरू कराते हैं कुछ ऐसे ही जांबाजों से।

गरजतीं रहीं बंदूकें, पर नहीं थमे कदम

कारगिल वार में मैं सेकेंड इन कमांड की भूमिका में था। मेरी ड्यूटी मशकोह में थी। हमें चार दिन पहले ही युद्ध में जाने के लिए अलर्ट कर दिया गया था। फाइनल ऑर्डर्स मिलते ही हम दो घंटे में जाने के लिए तैयार हो गए। वहां पहुंचते ही हमने प्लान तैयार किया, मैप तैयार किए और पूरी बटालियन को निर्देश देने शुरू कर दिए। इसके बाद सबसे पहले .4545 पर कब्जा किया। हम रात भर चढ़ाई करते रहे। हमारे जांबाजों ने दुश्मनों से आमने-सामने की लड़ाई लड़ी। जहां हमारा हेड क्वार्टर बनाया गया था, वहां हर समय फायरिंग, मशीन गन के चलने और बमबारी का खतरा बना रहता था। हर पल कुछ भी हो सकता था पर हम डटे रहे और जीत हासिल की।

-ब्रिगेडियर, अनिल शर्मा, कारगिल वार में सेकेंड इन कमांड की भूमिका

देश के लिए बेटे ने जान दी तो गर्व से चौड़ा हो गया हमारा सीना

मेरे बेटे ने मरते हुए भी दो दुश्मनों की जान ली थी, बहुत जांबाज था मेरा बच्चा। यह कहना है 'ऑपरेशन पराक्रमÓ में शहीद हुए लेफ्टिनेंट पंकज अरोड़ा के पेरेंट्स श्याम सुंदर अरोड़ा और प्रेमलता अरोड़ा का। बात करते हुए मां का दिल भारी हो गया, उन्होंने बताया उसे बचपन से ही आर्मी ज्वाइन करने का शौक था। पंतनगर यूनिवर्सिटी से बीएससी करने के बाद ही उसका सेलेक्शन आर्मी में हो गया था। आठ महीने ही हुए थे, उसे और राजौरी में ऑपरेशन पराक्रम के दौरान देश के दुश्मनों से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त हुई। पिता श्याम सुंदर को गर्व है कि उनके बेटे ने सीने पर गोली खाई। बेटे ने देश के लिए जान दी तो गर्व से सीना चौड़ा हो गया। उसकी शहादत पर उसे सेना मेडल से नवाजा गया है। मां प्रेमलता ने बताया कि उनके तीन बेटों में वह सबसे छोटा होने की वजह से ज्यादा लाडला भी था।

-श्याम सुंदर अरोड़ा, लेफ्टिनेंट पंकज अरोड़ा के फादर

पैर गंवाए फिर भी नहीं डिगी हिम्मत

1962 में हुई इंडो-चाइना वार में मैं प्लाटून कमांडर था। उस समय मेरी ड्यूटी एंटी टैंक 106 आरसीएल गन पर थी। युद्ध के दौरान हमारे पास मिट्टी का तेल खत्म होने पर हमें अपनी गन दुश्मन के खेमे में छोडऩी पड़ी थी। पर जब हम उसे रिकवर करने गए तो मेरा पैर जमीन में लगी माइन पर पड़ा और मुझे माइन इंजरी हो गई। मेरे एक साथी की बहादुरी से मेरी जान बच पाई पर मेरा पैर कट गया। पुणे के आर्मी हॉस्पिटल ने सर्जरी से ऑर्टिफिशियल पैर के सहारे मुझे फिर खड़ा कर दिया लेकिन देश सेवा का   जज्बा मेरे अंदर उफान मारता रहा। इलाज के बाद मुझे 5 जाट बटालियन में सी ग्रेड दे दिया गया और मेरी जॉब सेंटर पर ही लगाई गई। कुछ दिनों बाद 1965 में जब पाकिस्तान से जंग छिड़ी तो सी ग्रेड में होने की वजह से मुझे जंग पर नहीं भेजा गया पर मेरे जिद पर अडऩे के बाद मुझे सियालकोट भेज दिया गया।

-बलवंत सिंह अहलावत, इंडो-चाइना वार में प्लाटून कमांडर

दुश्मनों के बमों की बारिश के बीच हमने लहराया था तिरंगा

मैंने 1965 के इंडो-पाक वार में एएससी की ओर से लेफ्टिनेंट के तौर पर शामिल था। मेरी ड्यूटी पठानकोट में एमिनिशन ट्रांसपोर्ट में थी। एक दिन हमें सूचना मिली कि पाकिस्तान के कुछ पैरा ट्रूपर्स हमारे ऑयल डिपोज और एयरबेस को तहस-नहस करने के लिए उतरने वाले हैं। पर कब, कहां लैंड करेंगे, पता नहीं था। उनके पास मशीन गन थी, उनके ग्रुप में तकरीबन 50 लोग थे। हमने गाडिय़ों को रवाना कर दिया था, उसके बाद पेट्रोलिंग के लिए निकले। तभी कुछ लोगों ने नहर के पास ही बमबारी की और कुछ लोग नीचे आते दिखाई दिए। पर उस हमले में मैं बाल-बाल बच गया और हमने उन पैरा ट्रूपर्स को बंदी भी बनाया।

-मेजर सुरजीत सिंह, 65 के वार में शामिल

उनकी शहादत पर हमें है नाज

सुहागा देवी ने बताया, मेरे पति ने 18 साल तक देश की सेवा की। हमें इस बात पर गर्व है कि मैं एक शहीद की विधवा हूं। आज से 12 साल पहले सेना के लिए एमिनिशन ले जाते हुए एक एक्सीडेंट में वह शहीद हो गए थे। मुझे पता नहीं था कि वह उस दिन घर से निकलने के बाद वापस नहीं आएंगे। दोपहर दो बजे वह घर से गए थे और शाम चार बजे उनकी शहादत हो गई। उस समय मेरी बड़ी बेटी केवल 13 साल की थी। बेटी सपना ने बताया, मैं उस समय बहुत छोटी थी। मुझे पता ही नहीं था कि अब पापा दोबारा नहीं आएंगे। बेटे शुभम ने बताया, मुझे याद है कि पापा को एक डिब्बे में बंद कर दिया गया, घर में बहुत भीड़ लगी थी। पर अब समझ आता है कि देश के लिए शहीद होने वाले का क्या सम्मान होता है।

पर कसक भी है बाकी

शहादत की खुशी तो है पर कसक बाकी है कि जिस देश के लिए वह कुर्बान हो गए, परिवार को देश ने कोई खास मदद नहीं दी। बार-बार गैस एजेंसी, पेट्रोल पंप के लिए ट्राई किया पर कुछ भी हाथ नहीं आया। हर बार केवल तिरस्कार ही मिला। केवल पेंशन का ही सहारा है।

-सुहागा देवी, पत्नी, शहीद कप्तान सिंह, नायक, 72 मीडियम रेजीमेंट

म्यूजियम में मौजूद हैं वीरता की निशानियां

'उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता जिस मुल्क की सरहद की निगेबान हैं आखें'। यह पंक्तियां जेआरसी के जवानों पर बिल्कुल सटीक बैठती है। जाट रेजीमेंट सेंटर के म्यूजियम में तमाम ऐसी यादगार चीजें रखी गईं है जो जेआरसी जवानों की वीरता का परिचय देती हैं। 1947 से लेकर 1999 तक की हर वार में जेआरसी के जवानों ने अपनी बहादुरी दिखाई है। कारगिल वार में जेआरसी को महावीर चक्र भी मिल चुका है। 1971 की लड़ाई में भी जाट ऑफिसर्स ने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। ट्यूजडे को आर्मी डे पर जेआरसी में रीथ लाइंग ऑर्गनाइज की जाएगी।

कह रही हैं वीरता की कहानियां

इस शहर में जांबाजों के साथ-साथ जांबाजी की निशानियां भी कम नहीं है। जाट रेजीमेंट सेंटर के म्यूजियम में रखी वार के दौरान कैप्चर की गई राइफल, रॉकेट लांचर, फ्लैग्स, कॉन्फिडेंशियल डाक्युमेंट्स वीरता की कहानियां कह रही हैं। यहां 1947 से लेकर 1999 तक की हर वार में जेआरसी की कहानी स्वर्णिम ही रही है। कारगिल वार में जेआरसी को एक महावीर चक्र, 6 वीर चक्र, 10 सेना मेडल मिले। वहीं 1971 की वार में 1 महावीर चक्र, 16 वीर चक्र मिले। इतना ही नहीं जेआरसी ने अब तक देश की खातिर सैकड़ों शहादतें भी दी हैं। जेआरसी के इस सेंटर पर रिक्रूट्स को देश की सेवा के लिए 36 महीने की ट्रेनिंग देकर तैयार किया जाता है।

17 जाट बटालियन की बहादुरी

1999 में हुए कारगिल वार में जेआरसी की 17 जाट बटालियन ने बहादुरी को पेश किया। इस वार में जाट रेजीमेंट सेंटर को महावीर चक्र दिलाने वाली बटालियन यही थी। इसके अलावा सबसे ज्यादा 4 वीर चक्र, 6 सेना मेडल और 20 मेंशन इन डिस्पैच भी इसी बटालियन को दिए गए। शहादत में इस बटालियन का नाम सबसे ऊपर है। बटालियन ने अपना एक ऑफिसर, 2 जेसीओ और 34 जवानों की शहादत दी।

1971 में भी पेश की मिसाल

जाट रेजीमेंट ने ही 1971 में भी ईस्टर्न और वेस्टर्न दोनों ही सेक्टर्स में जांबाजी की   मिसाल कायम कीं। रेजीमेंट की मानें तो इस वार में दुश्मन के छक्के छुड़ाने वालों में जाट ऑफिसर्स का नाम आज भी लिया जाता है। उनकी मानें तो जाट आफिसर्स ही थे, जिन्होंने शत्रुओं को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। इस वार में जेआरसी की 9 बटालियन शामिल हुई थीं।

आज होगी रीथ लाइंग

जाट रेजीमेंट सेंटर में आर्मी डे के मौके पर रीथ लाइंग ऑर्गनाइज की जा रही है। कर्नल एसजेडए रिजवी ने बताया कि इस खास मौके पर देश के लिए शहीद होने वाले जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाएगी। इसके लिए सेंटर के ऑफिसर्स वार मेमोरियल में पहुंचेंगे।