किसी के पास भी नहीं है वक्त

फास्ट लाइफ में पिछडऩे के डर से सभी ने वक्त के साथ कदम मिलाना तो सीख लिया, लेकिन इस दौड़ में उनके पास अगर किसी चीज की भारी कमी सामने आई तो वह है वक्त की। बच्चों की बात करें तो कुछ साल पहले तक वह दीवाली के मौके पर कई दिनों पहले से ही घरौंदे बनाने में लग जाते थे, वहीं उनका सेलिब्रेशन दीवाली के बाद भी चलता रहता था। चार दिन पहले से घरौंदे बनाना, फिर धनतेरस में मार्केट से मिट्टी के खिलौने लेकर आना। इसके बाद छोटी और बड़ी दीवाली के साथ ही परेवा तक जमकर पटाखे फोडऩा, ट्रेडिशन में शामिल हुआ करता था। मगर अब बड़ों की बात तो दूर बच्चों के पास भी इन सब चीजों के लिए वक्त नहीं बचा है।

पेरेंट्स की चाह

वक्त की कमी और ट्रेडिशन से लगातार दूर होने की वजह अगर ढूंढी जाए तो इन सबके लिए पेरेंट्स ही जिम्मेदार मिलेंगे। छोटेकाजीपुर के रहने वाले विवेक श्रीवास्तव की मानें तो पेरेंट्स की जिम्मेदारी इसलिए है कि सोसाइटी में उनकी नाक ऊंची रहे और उनका बच्चा हर मामले में अव्वल रहे। इसके लिए वह स्टार्टिंग से ही बच्चों पर प्रेशर बनाना शुरू कर देते हैं। मार्निंग में उठते ही स्कूल, स्कूल से आने के बाद होमवर्क, उसके बाद ट्यूशन, फिर रीविजन इसमें ही पूरा दिन खत्म। इस टाइट शेड्यूल में अगर बच्चे को थोड़ा वक्त भी मिलता है तो उस दौरान वह इतना थक जाता है कि सिर्फ मोबाइल चलाने या टीवी देखने के कुछ और करने लायक नहीं रह जाता।

स्कूल के अलग नखरे

ट्रेडिशन से दूर करने में जितने जिम्मेदार पेरेंट्स हैं, उतनी ही जिम्मेदारी स्कूल की भी है। गोरखनाथ के रहने वाले मनोज पांडेय की माने तो आजकल स्कूलों के भी अलग नखरे हैं, जिनकी वजह से बच्चे लगातार ट्रेडिशन से दूर होते चले जा रहे हैं। स्टार्टिंग की बात करें तो स्कूल में एडमिशन के लिए ही बच्चों को नाकों चने चबाने पड़ते हैं, उसके बाद अगर एडमिशन हो भी गया तो यह गारंटी नहीं है कि बच्चा नेक्स्ट इयर स्कूल में रह सकेगा या नहीं, क्योंकि ऐसे कई स्कूल हैं जिसमें अगर स्टूडेंट्स फेल हो गया तो उसे निकाल देते हैं। ऐसे में अगर उन्हें स्कूल में रहना है तो मेहनत तो करनी पड़ेगी। छुट्टियों में भी स्कूल वाले बच्चों पर इतना बोझ डाल देते हैं कि खेलना कूदना तो दूर अपने होमवर्क में ही फंसे रह जाते हैं, अगर होमवर्क कंप्लीट नहीं हुआ तो फाइन न देना पड़े इसके लिए पेरेंट्स को भी बच्चों पर प्रेशर बनाना मजबूरी हो जाती है।