वर्ष 1999 में करगिल की लड़ाई के दौरान एक पल ऐसा भी आया था जब डोगरा रेजीमेंट के मेजर देवेंद्र पाल सिंह को मृत घोषित कर उनके शरीर को शव गृह में भेजने का आदेश दे दिया गया था। लेकिन एक अनुभवी डॉक्टर की नज़रों ने उनकी डूबती सांसों को पहचान लिया और उन्हें तुरंत अस्पताल ले गए।

अस्पताल में महीनों बेहोश रहने के बाद जब मेजर डीपी सिंह को होश आया तो उनसे कहा गया कि उनकी जान बचाने के लिए उनका एक पांव काटना पड़ेगा। मेजर डीपी सिंह बताते हैं, "ऊपर वाले ने मेरी ज़िंदगी के चैप्टर्स कुछ इस तरह से लिखे थे कि इन चुनौतियों के लिए मैं हमेशा से तैयार था."D P Singh

ऐसे हालात में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। डीपी सिंह कहते हैं कि मौत को चकमा देने के बाद किसी भी चीज़ में इतनी ताक़त नहीं थी कि उनके जीने के जज़्बे को हरा पाती। और शायद इसीलिए आज उन्हें भारत का पहला 'ब्लेड-रनर' कहा जाता है। ये नाम उन्हें दक्षिण अफ्रीका के बिना पैरों वाले धावक ऑस्कर पिस्टोरियस के नाम पर दिया गया है।

गहरी चोटें

करगिल की लड़ाई के दौरान उनके शरीर में कई गंभीर चोटें आई थीं। उनके शरीर में कई जगहों पर अब भी बारूद की चिंगारियों का असर मौजूद है।

इस चोट का असर उनके पूरे शरीर पर हुआ है। उनकी पसलियों, लीवर, घुटने, कोहनी, आंत और यहां तक कि सुनने की शक्ति भी प्रभावित हुई, जो उन्हें कभी भी पूरी तरह से दर्द मुक्त रहने नहीं देती।

डीपी सिंह को अपने शरीर को क्रियाशील रखने के लिए सामान्य से ज्य़ादा मेहनत करनी पड़ती है। जीवन की मुख्यधारा में लौटने और एक सामान्य जीवन जीने के लिए डीपी सिंह ने खेल के मैदान को अपनी कार्यशाला के रूप में चुना।

उन्होंने शुरुआत गोल्फ, स्क्वैश और वॉलीबॉल खेलने से की और इस दौरान लगातार व्यायाम भी करते रहे, ताकि उनके शरीर को फिर से दबाव सहने की आदत हो जाए। लेकिन ये सब करते हुए भी दौड़ना संभव नहीं था क्योंकि उस वक्त जिस कृत्रिम टांग के सहारे वे चलते थे, वो दौड़ने योग्य नहीं थी।

इस सब के बावजूद साल 2009 में उन्होंने दिल्ली में आयोजित एक हाफ मैराथन दौड़ और मुंबई में हाफ मैराथन में दौड़ने का निश्चय किया और अगले दो सालों तक आयोजित होने वाली मैराथन दौड़ में चलने वाली टांग से ही भाग लेते रहे।

उनके जज्ब़े ने भारतीय सेना का ध्यान भी इस ओर खींचा और साल 2011 में भारतीय सेना ने उन्हें दौड़ने के उद्देश्य से ख़ास तौर से बनाई गई नकली टांग यानी 'ब्लेड प्रोस्थेसिस' दिया।

इस ब्लेड से मेजर डीपी सिंह दोनों पांवों से दौड़ने लगे। हालांकि इससे उनको थकावट भी ज्य़ादा होती है। और तब से लेकर आज तक डीपी सिंह इन्हीं ब्लेड के सहारे पांच मैराथन दौड़ों में हिस्सा ले चुके हैं और उनके दौड़ने की अवधि चार घंटे से घटकर दो घंटे की हो गई।

जज़्बा जीतने का

डीपी सिंह के इस जज़्बे ने कई लोगों को उनका मुरीद बना दिया। फिल्म कलाकार राहुल बोस और मिलिंद सोमण भी उनसे काफी प्रभावित हुए। मेजर सिंह कहते हैं कि उनकी इस कोशिश को ना सिर्फ लोगों की सराहना मिली है बल्कि लोगों ने उन्हें प्रोत्साहित भी किया है।

डीपी सिंह ने भी लोगों को निराश नहीं किया है और अपनी दिनचर्या को निभाते हुए वे उन लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं जो अपना कोई अंग गंवा चुके हैं। आखिर इसकी प्रेरणा उन्हें कहां से मिली?

इस पर मेजर सिंह कहते हैं, ''करगिल की लड़ाई के बाद जब मैं महीनों अस्पताल में पड़ा रहा तो ना जाने कितने हिंदु्स्तानियों ने अपना खून देकर मेरी जान बचाई थी। इसलिए मैं ये कहता हूं कि मेरी रगों में सैकड़ों हिंदुस्तानियों का खून दौड़ रहा है और मुझे वो कर्ज़ चुकाना है.''

उनके अनुसार, ''मैं चाहता हूं कि जिस किसी ने भी मेरी तरह किसी हादसे में अपना कोई अंग गंवा दिया है, मैं उन्हें 'फिज़ीकली चैंलेज्ड' से 'द चैलेंजिंग वन्स' बनाऊं। इसलिए मैंने फेसबुक पर एक कम्यूनिटी बनाई है ताकि ऐसे सभी लोगों को एक मंच पर इकट्ठा कर उन्हें प्रोत्साहित कर सकूं.''

लड़ाई के मैदान से लेकर निजी जीवन तक मेजर डीपी सिंह कई मोर्चों पर ना सिर्फ लड़ रहे हैं बल्कि उसमें जीत भी हासिल कर रहे हैं। वो पिछले दस सालों से एक सिंगल पेरेंट हैं और अकेले ही अपने 10 साल के बेटे का पालन पोषण कर रहे हैं।

इसके जवाब में वे कहते हैं कि उन्हें यहां भी कुछ अजीब नहीं लगता। वे अपने बेटे की देखभाल उसी तरह से कर रहे हैं जैसे कोई भी सामान्य माता-पिता करते हैं।

फिलहाल दिल्ली की एक प्राइवेट बैंकिंग कंपनी में बतौर प्रशासनिक प्रमुख काम कर रहे मेजर डीपी सिंह कई निराश जिंदगियों में आशा की किरण जगाने में कभी पीछे नहीं रहते हैं।

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