कानपुर (ब्यूरो) संडे को इस ऐतिहासिक धरोहर के बारे में जानने के लिए दैनिक जागरण आई नेक्स्ट की टीम घंटाघर पहुंची, यहां पर 63 वर्षीय क्लॉक के मैकेनिक डेविड मैसी मिले। वह बतातें हैं कि ब्रिटिश काल में लोगों के पास घडिय़ां नहीं हुआ करती थी, इसकी वजह से वर्ष 1934 में ब्रिटिश काल में इस घंटाघर का निर्माण किया गया। यह जमीन से 128 फिट ऊपर बना है। ब्रिटिश शासकों ने इस क्लॉक में लंदन से मंगवाए गए पार्टस लगवाएं हैं।

तीन सालों से बंद थी क्लॉक
एक समय में घंटे की आवाज इतनी तेज हुआ करती थी, कि उसे पांच किलोमीटर की दूरी से भी सुना जा सकता था। वर्ष 1999 से 2017 तक यह क्लॉक टावर केडीए के अंडर में था। इसके बाद 2017 में ही इसे नगर निगम को सौंप दिया गया। तब से इसकी मेन्टीनेंस की जिम्मेदारी नगर निगम के पास है। वर्ष 2019 से यह खराब था।

एक बार चाबी भरना जरूरी
घंटाघर के डिजाइन की वजह से इसकी तुलना दिल्ली की कुतुब मीनार से की जाती है। निर्माण में अंग्रेज जार्ज टी बुम का योगदान था। डेविड बताते हैं कि घनी आबादी में बने इन क्लॉक टावर की टिक-टिक पर मजदूर तो चलते ही थे, साथ ही शहर भी जाग जाता था। साथ ही इस क्लॉक को चलाने के लिए हर 22 घंटे में एक बार चाबी भरना जरूरी है।

मैसी इकलौते मैकेनिक
टावर क्लॉक की रिपेयरिंग के लिए सिर्फ एक मैकेनिक डेविड मैसी हंै, जोकि सभी क्लॉकों को मिनटों में बनाने में माहिर हैं। वर्ष 1944 से 1979 तक यह काम उनके पिता बाबू मैसी किया करते थे, डेविड बताते हैं कि 1977 से वह इन क्लॉक को बना रहे हैं। नैनीताल, फैजाबाद, देहरादून समेत अन्य जगहों के क्लॉक टावरों को वह बनाते रहे हैं।

फैक्ट फाइल भी जानें
- 1934 में घंटाघर का निर्माण
- 128 फिट ऊंची बनी क्लॉक
- 88 वर्ष पुराना हो चुका घंटाघर
- 22 घंटे में एक बार भरना होता है चाबी
- 1999 से 2017 तक थी केडीए की जिम्मेदारी
- 2019 से क्लॉक हुई बंद
- 3 साल बाद हुआ चालू