लखनऊ (ब्यूरो)। डॉक्टर्स पहले के मुकाबले अब रेडियोलॉजी, मेडिसिन, एंडोक्राइन और साइकोलॉजी जैसी ब्रांच ज्यादा पसंद कर रहे हैं, जबकि सर्जरी खासतौर पर पीडियाट्रिक, कार्डियोलॉजी और ऑन्को सर्जरी जैसी ब्रांच को अभ्यर्थी तक नहीं मिल पा रहे हैं। डॉक्टर्स की माने तो नीट काउंसलिंग में स्टूडेंट्स द्वारा एमसीएच में रुझान नहीं दिखाने से सीटें पूरी तरह से खाली चल रही हैं। पूरे देश में इस फील्ड में काफी कमी देखने को मिल रही है। अगर स्थिति यही रही तो सरकारी अस्पतालों में सुपर स्पेशलिस्ट सर्जन मिलना मुश्किल हो जायेंगे। ऐसे में मरीजों को निजी अस्पतालों में या विदेश जाकर महंगी सर्जरी करानी पड़ सकती है। सरकार को इस गंभीर समस्या को देखते हुए नए प्रयास करने की जरूरत है।

इस वजह से घट रहा रुझान

लोहिया में सीवीटीएस के एचओडी प्रो। एपी जैन बताते हैं कि क्लीनिकल फील्ड में मेहनत सबसे ज्यादा है। इसके साथ, बॉन्ड भरवाना, काम के अनुसार सैलरी न होना और दूसरों के द्वारा सम्मान न मिलना बड़ी वजह है, जिससे यंग डॉक्टर्स का सर्जन बनने से मोह भंग हो रहा है। वहीं, नॉन क्लीनिकल ब्रांच में कम मेहनत और जल्द अच्छी कमाई की वजह से स्टूडेंट्स उस ओर ज्यादा भाग रहे हैं। सबसे ज्यादा रेडियालॉजी, गैस्ट्रो, मेडिसिन, इंडोक्राइन आदि अधिक पसंद की जा रही है।

डॉक्टर अब सुकून की लाइफ चाहता है

केजीएमयू के पीडियाट्रिक सर्जरी के हेड डॉ। जेडी रावत बताते हैं कि आजकल स्टूडेंट्स नॉन-क्लीनिकल और पैरा-मेडिकल ब्रांच ज्यादा पसंद कर रहे हैं, क्योंकि इसमें मरीज से इंटेरेक्शन और इंवाल्वमेंट बेहद कम होता है, सर्जरी में ऐसा नहीं होता है। ऑपरेशन करना तो सर्जन के हाथ में है, लेकिन सफलता उसके हाथ में नहीं होती है। ऐसे में मौत पर परिजन हंगामा और मारपीट तक करने लगते हैं, जिससे सर्जन परेशान हो जाता है। यही सब देखकर वे सोचते हैं कि नॉन-क्लीनिकल ब्रांच लो, आराम से जियो क्योंकि सैलरी में भी ज्यादा अंतर नहीं होता है। इसके अलावा, सर्जरी फील्ड में सेटलमेंट लंबा होता है, जिसकी वजह से आधी उम्र पढ़ाई में ही निकल जाती है। ऐसे में स्टूडेंट्स अब जल्दी कमाई चाहता है।

कोई इमरजेंसी नहीं होती है

लोहिया संस्थान में पीडियाट्रीशियन डॉ। शशांक सिंह बताते हैं कि एमबीबीएस के बाद पीजी की तैयारी करते हैं, लेकिन अब कॉम्प्टीशन काफी टफ हो गया है। स्टूडेंट पहले क्लीनिकल ब्रांच का ही सोचता है, लेकिन प्लान बी और सी लेकर भी चलता है, जिसकी वजह से एसपीएम फॉरेंसिक, माइक्रो, पैथालॉजी, रेडियालॉजी आदि ब्रांच पसंद करता है। चूंकि इसमें टाइम भी फिक्स होता है और आप फैमिली के लिए भी टाइम निकल पाते हैं। वहीं, रेडियोलॉजी पहली पसंद इसलिए बन गई है क्योंकि इसमें पेशेंट से ज्यादा बात नहीं होती और पैसा भी बहुत ज्यादा होता है। साथ ही इमरजेंसी नहीं होती है और लंबे समय तक बैठना नहीं होता है। वैसे भी बिना डायग्नोसिस के कोई ट्रीटमेंट शुरू नहीं हो सकता इसलिए यह बेस्ट ब्रांच मानी जाती है।

सर्जरी में वर्क लोड बहुत ज्यादा

केजीएमयू के पूर्व छात्र और गैस्ट्रो स्पेशलिस्ट डॉ। अनिल गंगवार बताते हैं कि सर्जरी में वर्क लोड बहुत ज्यादा होता है। इमरजेंसी के लिए हर समय तैयार रहना होता है। साथ ही कुछ समस्या होने पर परिजनों की बातें सुनने से लेकर पुलिस केस तक झेलना पड़ता है, जिससे मानिसक प्रताड़ना और बढ़ जाती है। दूसरा, आप अपने परिवार के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं। ऐसे में वर्क और पर्सनल लाइफ दोनों बिगड़ जाती है। नॉन-क्लीनिकल में आप अपने टाइम और सुविधा अनुसार काम करने की छूट पाते हैं। संस्थान में नौकरी मिली तो पढ़ाई और तय समय के बाद घर चले जाते हैं, जिससे काफी सुकून मिलता है। यही वजह है कि एमबीबीएस करने के बाद स्टूडेंट्स अब नॉन-क्लीनिकल ब्रांच ज्यादा पसंद कर रहे हैं।

क्लीनिकल ब्रांच में समय ज्यादा लगता है, जो स्टूडेंट अब पसंद नहीं करते हैं इसलिए नॉन-क्लीनिकल की ओर उनका ज्यादा रुझान दिखता है।

-डॉ। एके जैन, लोहिया संस्थान

डॉक्टर्स अब लाइफ में आराम और सुकून चाहते हैं, जो क्लीनिकल ब्रांच में संभव नहीं है इसलिए वे नॉन-क्लीनिकल को ज्यादा पसंद किया जा रहा है।

-डॉ। जेडी रावत, केजीएमयू

रेडियालॉजी पहली पसंद बनती जा रही है, क्योंकि बिना डायग्नोसिस कोई ट्रीटमेंट नहीं हो पाता। आप अपने घर-परिवार के लोगों को भी समय दे पाते हैं।

-डॉ। शशांक सिंह, लोहिया संस्थान

एक सर्जन के तौर पर आपको ज्यादा समय देना पड़ता है, जबकि नॉन-क्लीनिकल में ऐसा नहीं होता है। दूसरा, आप अपनी सुविधा अनुसार भी काम कर सकते हैं, जिससे काफी राहत और सुकून मिलता है।

-डॉ। अनिल गंगवार, पूर्व केजीएमयू छात्र