नेताओं के भड़काऊ भाषण, सीओ की भूमिका स्पष्ट नहीं

आईपीएस लॉबी में भी उपजा असंतोष, एसोसिएशन हुई मुखर

LUCKNOW: मुजफ्फरनगर दंगे की जांच करने वाले रिटायर्ड जस्टिस विष्णु सहाय आयोग की रिपोर्ट अपने पीछे कई अनसुलझे सवाल छोड़ गयी है। रिपोर्ट में चालीस वरिष्ठ अधिकारियों की छानबीन की गयी लेकिन दोषी केवल दो को ही ठहराया गया। चंद दिनों पहले पहुंचे एसएसपी और एलआईयू इंस्पेक्टर को ही दोषी पाने के बाद इस मामले में आईपीएस एसोसिएशन भी मुखर होती जा रही है। कुल मिलाकर इस रिपोर्ट पर ही अब सवालों की झड़ी लगती जा रही है।

नेताओं की भूमिका स्पष्ट नहीं

जांच रिपोर्ट में भड़काऊ भाषण देने वाले नेताओं की भूमिका स्पष्ट नहीं है। आयोग ने दलील दी कि नगला मंडौर में आयोजित महापंचायत की रिकॉर्डिग नहीं की गई। इसलिए सांप्रदायिक दंगों के लिए नेताओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। आखिर जब प्रमुख सचिव गृह और डीजीपी ने बकायदा वीडियो कांफ्रेंसिग करके पंचायत की वीडियोग्राफी कराने के निर्देश दिए थे तो वह क्यों नहीं हुई। 30 अगस्त को मुजफ्फरनगर के शहीद चौक में होने वाली सभा पर प्रतिबंध के बावजूद उसे क्यों होने दिया गया। नगला मंडौर में 31 अगस्त को महापंचायत स्थगित करने की आम सहमति बन चुकी थी, इसके बावजूद कैसे सभा हुई।

पूर्व एसएसपी और सीओ की भूमिका संदिग्ध

रिपोर्ट में कवाल कांड के दौरान मुजफ्फरनगर की एसएसपी मंजिल सैनी की भूमिका का जिक्र नहीं है। वहीं सीओ के निर्देश पर थाने से 14 संदिग्धों को किसके दबाव में छोड़ा गया, इस बाबत भी कोई जिक्र नहीं किया गया है। आखिर सीओ को युवकों को छोड़ने के लिए किसने कहा था। आईपीएस लॉबी में चर्चा है कि सुभाष दुबे के मुजफ्फरनगर तबादले के बाद भी मंजिल सैनी ने चार दिन तक चार्ज नहीं छोड़ा था। वे अपना तबादला रुकवाने की जुगत में थीं। इन पहलुओं पर आयोग ने कुछ नहीं कहा।

किसके कहने पर पक्षपात

रिपोर्ट में कहा गया है कि सुभाष दुबे से ज्यादा शामली के तत्कालीन एसपी अब्दुल हमीद की भूमिका संदिग्ध थी। पास का जिला सुलगता रहा और एसपी शांत बैठे रहे। आईजी जोन ब्रजभूषण शर्मा जब खुद मोर्चा संभाल रहे थे तो एसएसपी सुभाष दुबे ही हर गलती के जिम्मेदार कैसे। साथ ही, यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि दंगे के बाद सुभाष दुबे को निलंबित किया गया जबकि अब्दुल हमीद का केवल तबादला हुआ। आखिर किसने इशारे पर यह पक्षपात किया गया।

लगायी गयी थी रासुका

दंगों के बाद स्थानीय प्रशासन ने बीजेपी नेता संगीत सोम व सुरेश राणा पर रासुका भी तामील की थी। बाद में यह मामला हाईकोर्ट की एडवाइजरी बोर्ड के सामने गया तो आरोपितों के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य नहीं दिए जा सके जिसके बाद बोर्ड ने इसे खारिज कर दिया। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि दंगों के असली गुनहगारों को तलाशने के बजाय जिला प्रशासन किसके इशारे पर बीजेपी नेताओं को फंसाने की कवायद करता रहा।

आइबी ने भी सरकार पर लगाये थे आरोप

सूत्रों के मुताबिक इंटेलीजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट में कहा गया कि मुजफ्फरनगर का दंगा रुक सकता था, लेकिन सरकार ने ही पुलिस प्रशासन के हाथ बांध दिए थे। अलर्ट के बावजूद संबंधित इलाकों में न तो फोर्स बढ़ाई गयी और न कोई एक्शन प्लान बना।