लखनऊ (ब्यूरो)। रमजान जकात देने के लिए बेहतर महीना है। रमजान में जकात देने का ज्यादा सवाब है, क्योंकि रमजान तमाम महीनों का सरदार है। इस महीने में जो भी इबादत की जाती है उसका सवाब 70 फीसदी ज्यादा बढ़ जाता है। इस महीने पढ़ी जाने वाली नमाजों का भी सवाब 70 फीसदी ज्यादा हो जाता है। इसी तरह इस महीने अदा की जाने वाली जकात का भी सवाब बढ़ जाता है। जो साहब-ए-निसाब होकर जकात से जी चुराता है वो अल्लाह की नाराजगी हासिल करता है, इसलिए हर हैसियतमंद इंसान को जकात देना चाहिए। ये बातें इदारा ए शरइया फिरंगीमहल के अध्यक्ष मुफ्ती इरफान मियां फिरंगी महली काजी ए शहर लखनऊ ने कहीं।

गरीबी को दूर किया जा सके

मुफ्ती इरफान मियां ने कहा कि जकात की अहमियत इस बात से पता चलती है कि कुरआन में अल्लाह पाक ने जकात का बयान 32 जगहों पर किया है। इस्लाम की पांच बुनियादी चीजों में जकात तीसरे स्थान पर है। आज मुसलमानों में जो गरीबी है वो इस तरफ इशारा कर रही है कि जकात की अदायगी ठीक तरह से नहीं हो रही है। सभी लोग जकात अदा करें तो इसे एकत्र कर मुसलमानों की गरीबी को दूर किया जा सकता है।

जकात हर मुसलमान पर फर्ज

जकात की तकसीम के कानून खुद अल्लाह ने तय कर दिए हैं, इसलिए ये जरूरी है कि हम जकात देने से पहले ये परख लें कि जिसे हम जकात दे रहे हैं वो कुरआन और हदीस की रोशनी में इसके पात्र हैं या नहीं। दरअसल, जकात का मकसद ही है कि गरीब और लाचार लोगों की जरूरत को पूरा किया जाए, इसलिए जकात हर मुसलमान का फर्ज है। जो बालिग हो, कमाने के लायक हो, जिस मुस्लिम मर्द या औरत के पास 52.50 तोले चांदी या 7.50 तोला सोना या सोना चांदी मिलाकर कोई एक हो जाए या इतनी कीमत की धनराशि या संपत्ति हो या कारोबार हो। जकात कुल संपत्ति का 2.5 फीसदी देना चाहिए।

इनको दे सकते हैं जकात

जकात, गरीब रिश्तेदार, गरीब पड़ोसी, गरीब दोस्त, गरीब और मजबूर, बेसहारा, मुसाफिर, मिस्कीन और फकीर, यतीम, मदरसों में पढऩे वाले गरीब बच्चों को दी जा सकती है। जबकि, माता-पिता, पत्नी, बच्चे, दादा-दादी, नाना-नानी, सैयद जादे ए हाशमी को जकात नहीं दी सकती।