- स्कूल बसों में मानकों के अनुसार हॉर्न लगाने के दिए निर्देश

- स्कूल बस संबंधी अन्य नियमों को भूल गया सीबीएसई

- सिर्फ निर्देश तक सीमित, इन्हें लागू करने की व्यवस्था नहीं

Meerut। सीबीएसई ने अभी हाल फिलहाल में स्कूलों की बसों में हॉर्न को नियमों के अनुसार लगाने के निर्देश जारी किए हैं। आईएमए एसोसिएशन व पेरेंट्स की शिकायतों के आने पर ही सीबीएसई ने ऐसा निर्देश जारी किया है। सवाल यह उठता है कि स्कूलों बसों में हॉर्न के अलावा और भी बसों में बहुत सारे ऐसे नियमों का भी उल्लंघन हो रहा हैं जो हॉर्न से भी ज्यादा खतरनाक हैं। सवाल यह उठता है कि ऐसे सीबीएसई ने खाली हॉर्न पर ही निर्देश क्यों जारी किए। आखिर बाकी नियमों को क्यों भूल गया सीबीएसई।

शिकायतों पर दिए निर्देश

अभी हाल में ही ऑल इंडिया डॉक्टर्स की एक रिपोर्ट सीबीएसई के पास पहुंची है। जिसमें यह दावा किया गया है कि स्कूल की बसों से देशभर के बच्चों के कान खराब हो रहे हैं। शिकायत के बाद ही सीबीएसई ने जारी सर्कुलर में बसों के हॉर्न पर ध्यान देने की हिदायत दी है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या सीबीएसई को निर्देश तभी याद आते हैं जब कोई शिकायत पहुंचती है। एक सवाल यह भी उठता है कि आखिर खाली हॉर्न पर ही ध्यान देने के निर्देश क्यों दिए गए हैं।

सुरक्षा का निर्देश नहीं

बसों में न तो कोई आपातकालीन खिड़की हैं और न ही कोई फ‌र्स्ट एड बॉक्स। वहीं सिटी में 80 से अधिक सीबीएसई स्कूलों में एक फीसदी बसों में हेल्पर हैं। लेकिन वर्दी में कोई नहीं होता है। अगर किसी हादसे में कोई बच्चा घायल हो जाए तो फ‌र्स्ट एड बॉक्स नहीं है। गेट का बंद रखने का नियम भी नहीं अपनाया जाता है। बसों का रंग पीला होना चाहिए। लेकिन स्कूलों की 50 फीसदी बसें सफेद, नीली व लाल ही हैं। पूछने पर ड्राइवर मालिकों पर बात टालते हैं कि उन्हें वर्दी नहीं मिलती हैं। ऐसे में सीबीएसई स्कूल बसों में नियमों पर हो रहीं लापरवाहीं पर क्यों कुछ नहीं बोल रहा है।

फायदे का है सौंदा

स्कूलों में भी ट्रांसपोर्टेशन चार्जेज के नाम पर बड़ा खेल चल रहा है। बस किराए के नाम पर बच्चों से पांच सौ रुपए से लेकर एक हजार तक वसूले जा रहे हैं, एक बस में अगर 40 बच्चे सफर करते हैं तो एक बस से एवरेज 20 हजार रुपए बच जाते हैं। अगर दस बसे हैं तो दो लाख रुपए की इनकम होती है। डीजल रेट बढ़ने पर स्कूल फीस बढ़ा देते हैं, मगर जिम्मेदारी की बात करें तो मैनेजमेंट यह कहकर बचने का प्रयास करते हैं कि अचानक से होने वाले हादसों का कौन टाल सकता है।

अधिकांश बस खटारा

स्कूलों की बसों पर गौर करें तो शहर में 80 से अधिक स्कूलों की सौ से अधिक बसें शहर में दौड़ रहीं हैं। बसों में कोई सुविधा नहीं है। अधिकतर बसों की सीटें टूटी हुई हैं। एक बस में लिमिट से ज्यादा बच्चों को बैठाते है। बसों की खिड़की टूटी व खराब पड़ी हैं।

ये हैं बसों के नियम

- स्कूल बस का रंग पीला होना चाहिए।

- बसों व वैन पर ऑन स्कूल ड्यूटी लिखा होना चाहिए।

- उपलब्ध सीट क्षमता से ज्यादा बच्चों का नहीं होना चाहिए।

- खिड़कियों पर लोहे की ग्रिल होनी चाहिए।

- फ‌र्स्ट एड बॉक्स जरुरी है। इसके बिना बस को चलने की इजाजत नहीं है।

- स्कूल का नाम व टेलीफोन नम्बर होना चाहिए।

- दरवाजों में मजबूत लॉक होना चाहिए।

- चालक को वाहन चलाने का कम से कम पांच साल का अनुभव हो।

- ड्राइवर व हेल्पर वर्दी होनी चाहए।

- बस में आपातकालीन खिड़ी होनी चाहिए।

- उनके खिलाफ ट्रैफिक नियम तोड़ने का मामला दर्ज न हो।

क्या कहते हैं प्रिंसिपल

हमारा भी दायित्व बनता है, लेकिन स्कूल की बसें प्राइवेट होती हैं। इसमें स्कूल को कोई दायित्व नहीं हैं।

-मधु सिरोही, प्रिंसिपल, एमपीजीएस

जिम्मेदारी तो स्कूल पूरी तरह से निभाते हैं, मगर अचानक से घटने वाली घटनाओं को तो स्कूल भी नहीं रोक सकते हैं। बसों की मैंटेनस पर पूरा ध्यान रखा जाता है।

-विशाल जैन, डायरेक्टर, शांति निकेतन स्कूल

यह सभी प्राइवेट बसें हैं, हमारी पर्सनल स्कूल बसें नहीं है। लेकिन फिर भी हम बसों की समय-समय पर जांच करवाते रहते हैं।

-कपिल सूद, प्रिंसिपल, जीटीबी

हमारी बसों में पूरी जिम्मेदारी से बच्चों को लाया जाता है। वैसे तो बस प्राइवेट होती हैं, लेकिन फिर भी हमारे स्कूल समय-समय पर बसों की जांच करवाते रहते हैं।

-राहुल केसरवानी, सहोदय सचिव