गांव कलीना में लोगों को बेटे के का नतीजा गर्व से बताते रहे पिता

भाई ने कहा, उम्मीद खत्म नहीं हुई और भी हैं मुकाबले

Meerut। जनपद की मिट्टी में तपे अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाज सौरभ चौधरी भले ही ओलंपिक के फाइनल में पदक से चूक गए हों, लेकिन उनके परिजनों को अपने बेटे पर नाज है। उनके पिता का कहना है कि खेल का मुकाबला है, तीन ही जीतते हैं, बाकी में किसी न किसी को तो बाहर होना ही है। हमारे बच्चे ने मेहनत की, यही काफी है।

प्रदर्शन पर संतोष

दैनिक जागरण आईनेक्स्ट की टीम शनिवार को सौरभ के गांव कलीना पहुंची। दरवाजे पर ही उनके भाई नितिन से मुलाकात हुई। उनके चेहरे और बातों में थोड़ा अंसतोष झलक रहा था। कहने लगे, पदक मिल जाता तो ज्यादा अच्छा था। नितिन ने बताया कि शनिवार को सुबह जब सौरभ ने फाइनल के लिए क्वॉलिफाई किया, तो उनसे पदक की उम्मीद और ज्यादा बढ़ गई थी। फिर भी बड़ी बात यह है कि हमारे घर का कोई सदस्य देश के लिए ओलंपिक तक पहुंचा।

कोई तो मेडल जीतता ही

घर के आंगन में आस-पड़ोस के लोगों और कुछ रिश्तेदारों के साथ बैठे सौरभ के पिता जगमोहन सिंह को हालांकि कोई मायूसी नहीं थी। वह तो हर 10 मिनट में बज रही फोन की घंटी पर बेटे के मुकाबले के नतीजे को बड़े गर्व से बताते जा रहे थे। बातों-बातों में जगमोहन ने कहा कि खेल में जीतते तो तीन ही लोग हैं, बाकी को तो बाहर होना ही पड़ता है। इस बार हमारा बच्चा हो गया तो क्या? हमारे लिए यही बहुत है कि हमारा बच्चा ओलंपिक में खेला।

जमकर की प्रैक्टिस

घर में बनी शूटिंग रेंज को दिखाते हुए नितिन ने बताया कि सौरभ ने ओलंपिक के लिए जमकर तैयारी की थी। टोक्यो जाने से पहले तक उनका सारा-सारा दिन घर में बनी शूटिंग रेंज में ही बीतता था। नितिन बताते हैं कि आम दिनों में भी सौरभ जब घर पर होते हैं, तो कम-से-कम 7 घंटे तक प्रैक्टिस करना उनकी दिनचर्या में शामिल होता है।

अभी और मौैका है

नितिन कहते हैं कि हमें सौरभ से अभी भी उम्मीद ही नहीं, बल्कि पूरा विश्वास है कि वह निराश नहीं करेंगे और अपने अगले मुकाबले में पदक जरूर हासिल करेंगे। गौरतलब है कि सौरभ का अगला मुकाबला 27 जुलाई को होगा।

दूसरे बच्चों को देखकर शुरुआत

सौरभ के पिता का कहना है कि वह आज अपने बच्चे के मुकाम से संतुष्ट है। क्या उन्होंने सौैरभ को कुछ और बनाने के बारे में सोचा था? इस सवाल पर वह कहते हैं कि इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। सौरभ ने बचपन से ही शूटिंग को अपना लिया था। उनके गांव के कुछ बच्चे पास ही बिनौली गांव में बनी शूटिंग रेज में प्रैक्टिस करने जाते थे। सौरभ भी उनकी देखा-देखी प्रैक्टिस करने जाने लगे। इसके बाद वह धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए।

संघर्ष का समय

नितिन ने बताया कि सौरभ का शुरुआती समय बहुत संघर्ष का समय था। बस से बिनौली जाना पड़ता था। प्रैक्टिस भी कोच की पिस्टल से करनी पड़ती थी। बाद में सौरभ को बैंक से लोन लेकर पिस्टल दिलाई गई थी। बाद में वह मेहनत करते गए और रास्ते बनते चले गए।