- दूर देश से आने वाले साइबेरियन बर्ड गंगा के जलचरों को पहुंचा रहे नुकसान

-सफाई में योगदान देने वाली मछलियों को बना रहे निवाला, कछुओं के बसेरों को भी कर रहे नष्ट

VARANASI

गंगा के आकर्षण में बंधे देश-दुनिया के लाखों मेहमान हर साल बड़ी संख्या में बनारस आते हैं। अपने मिजाज के मुताबिक ये शहर दिल से उनका स्वागत करता है। मेहमान भी इस शहर और इसकी खूबियों को बनाए रखने में अपना योगदान देकर जाते हैं। दूर देश के उड़कर खास मेहमान भी हर साल बड़ी संख्या में यहां आते हैं। मोक्षदायिनी गंगा इनके स्वागत में अपनी बाहें फैलाती है लेकिन बदले में ये गंगा को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। ये साइबेरियन बर्ड के नाम से पहचाने जाने वाले सीगॉल हैं। ऐसा कहना है पक्षी विशेषज्ञों का। मजबूरी यह है कि इन पक्षियों को आने से रोका भी नहीं जा सकता है।

गंगा को पहुंचा रहे नुकसान

ठंडी में साइबेरिया जैसे ठंडे देश से माइग्रेट होकर हर साल बड़ी संख्या में सीगॉल भारत की तरफ आते हैं। इनकी कई टोली बनारस में डेरा डालती है। गंगा की रेत में अपना बसेरा बनाती हैं। लहरों पर अठखेलियां करतीं हैं। हर साल बनारस आने परिदों की संख्या आठ से दस हजार तक होती है। नवम्बर से मार्च तक लगभग तीन से चार महीने यहां रहती हैं। इनका भोजन गंगा के पानी में रहने वाली देसी मछलियां होती हैं। सीगॉल बड़ी खब्बू किस्म की होती हैं। बड़ी मात्रा में मछलियां खाती हैं। साइबेरियन बर्ड उन छोटी मछलियों अपना निवाला बनाती हैं जो गंगा की सफाई में योगदान देती हैं। छोटी मछलियां ही गंगा में प्रदूषण फैलाने वाली गंदगी को साफ करती हैं और गंगा के इको सिस्टम में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

खतरे में कछुआ सेंचुरी

विशेषज्ञों की माने तो साइबेरियन बर्ड ना सिर्फ गंगा की मछलियों को खत्म कर रहे बल्कि कछुआ सेंक्चुरी को भी भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। गंगा किनारे का सेंड बेड ही कछुओं के अंडे देने की मुख्य जगह है। सीगॉल भी रेत पर घर बनाती हैं और कछुओं के घोसलों को अंडों सहित बर्बाद भी कर देती हैं। इससे कछुओं की संख्या में वृद्धि प्रभावित होती है और गंगा की सफाई भी। कछुए गंगा की सफाई के लिए बेहद जरूरी हैं। वो गंदगी, मांस के टुकड़े आदि को खाकर गंगा को साफ रखते हैं। केन्द्र सरकार ने गंगा की सफाई का अभियान दो दशक पहले शुरू किया था। इसमें जलीय जीव के महत्व को समझते हुए गंगा में बड़ी मात्रा में कछुओं को छोड़ा गया। उनके प्रजनन के लिए नदी के बीच पार रेत को कछुआ सेंचुरी घोषित किया था। नदी के बीच में भी रेत को कछुओं के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाया गया था लेकिन मेहमान परिदों ने उसे बर्बाद कर रहे हैं।

पानी-रेत का इलाका करता है आकर्षित

- साइबेरिया पक्षी सितम्बर में कम ठंडे देशों की तरफ उड़ान भरना शुरू करते हैं।

- ये नवम्बर तक बनारस तक पहुंचते हैं और यहां अमूमन मार्च तक रहते हैं।

- गंगा की रेत में अपना बसेरा बनाते हैं और पूरे दिन लहरों पर अठखेलियां करते हैं

- दो दशक पहले तक इनका आना न के बराबर था लेकिन रेत के टीले निकलने के बाद इनके आने की संख्या में बढ़ोतरी हुई है।

-गंगा के बीच रेत में या फिर गंगा के पार सीगॉल अपना घोसला बनाते हैं और अंडे देते हैं

रोजगार का बन रहे जरिया

- मेहमान परिंदे गंगा के लिए नुकसानदेह हैं लेकिन स्थानीय लोगों को फायदा पहुंचाते हैं

- दूर देश से आने वाले साइबेरियन बर्ड को निहारने बड़ी संख्या में लोग गंगा किनारे आते हैं।

- परिंदों को पंसद करने वालों को नाव की सवारी कराकर नाविक अपनी आमदनी करते हैं।

-चिडि़यों का दाना बेचकर दर्जनों लोग अपने लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हैं।

साइबेरिया जैसे ठंडे देशों से माइग्रेट होकर आने वाले परिदों से गंगा को नुकसान ही हो रहा है। वो बड़ी मात्रा में छोटी मछलियों को अपना निवाला बना लेते हैं। वहीं कछुओं को भी इनकी वजह से काफी नुकसान उठाना पड़ता है। परिंदे उनके अंडे देने के स्थान को नष्ट कर देते हैं। जिससे कछुओं की आबादी प्रभावित होती है। मछली और कछुए गंगा की सफाई के लिए बेहद जरूरी हैं। हालांकि अंतराष्ट्रीय कानून की वजह से परिंदों को रोका नहीं जा सकता है।

प्रो। चंदना हालदार, पक्षी विशेषज्ञ

गंगा को बचाना है तो उसकी साफ-सफाई बेहद जरूरी है। उसमें जमा हो रही रेत और सिल्ट ही उसकी दुश्मन बनती जा रही है। रेत ना सिर्फ विदेशी परिंदों को आकर्षित कर रही बल्कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो रही जिससे गंगा की धारा प्रभावित हो रही है। रेत को निकालना बेहद जरूरी है। इससे प्रवाह तेज होगा। फिर गंगा अपनी सफाई काफी कुछ कर पाएगी।

प्रो। यूके चौधरी, नदी विशेषज्ञ