फ़ोन ऑपरेटरों के अनुसार भारत में मोबाइल सर्विस क्वालिटी का मूल कारण है ढांचागत कमज़ोरियाँ. भारत में ना पर्याप्त मोबाइल टावर हैं ना पर्याप्त स्पेक्ट्रम.

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नवंबर के अंत में जब क्लेयर बरहागन दिल्ली पहुंची और अपने मोबाइल फ़ोन को ऑन किया तो उनका पहली बार भारत से सामना हुआ.

वो कहती हैं,'' मैं 15 मिनट तक हर नेटवर्क से जुड़ने का प्रयास करती रही. अंत में मैं एयरटेल के नेटवर्क से जुड़ी. लेकिन मैं फ़ोन नहीं कर सकती थी. मेजबान को फ़ोन करने के लिए मैंने एक सहयात्री से मोबाइल मांगा.''

किसी तरह वो अपने होटल पहुंची और बेल्ज़ियम में अपने पति को फ़ोन किया. इस दौरान दो बार उनकी कॉल ड्राप (बात करते हुए बीच में फ़ोन का कट जाना.) हुई.

मोबाइल फ़ोन

भारत में मोबाइल फ़ोन की शुरूआत 1990 के मध्य में हुई थी. उस समय कॉल की गुणवत्ता बेहतर थी. मोबाइल फ़ोन सेवा लैंडलाइन से भी बेहतर थी. उस समय कॉल ड्राप की शिकायत बहुत कम होती थी. मोबाइल फ़ोन के उपभोक्ताओं की संख्या बहुत कम थी. हालांकि दरें बहुत अधिक थीं, 16 रुपए प्रति मिनट तक.

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वहीं आज जब काल दरें 20 गुना तक सस्ती हैं. देश में क़रीब 92 करोड़ मोबाइल फ़ोन उपभोक्ता हैं. हर सेकेंड एक भारतीय एक हैंडसेट खरीद रहा है. ऐसे में ऐसा क्या है जिनका उन्हें रोज़-रोज़ सामना करना पड़ता है.

5 समस्याएं

संपर्क नहीं हो सकता : जब आप रोमिंग पर हों तो किसी को फ़ोन करना कठिन हो सकता है. अगर आप हवाई जहाज से अभी-अभी उतरें हैं तो, उस समय सैकड़ों मोबाइल फ़ोन ऑन होते हैं और किसी ओवरलोडेड नेटवर्क पर किसी को कॉल कर रहे होते हैं. ट्रेन में यात्रा के दौरान बात करने में दिक्कत होती है. यही हाल तब भी होता है जब आप किसी राजमार्ग से गुजर रहे होते हैं.

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नेटवर्क बिज़ी : आपके हैंडसेट में सिग्नल पूरा है. लेकिन कॉल नहीं कर सकते. दिल्ली हवाई अड्डा हो या गुड़गांव साइबर सिटी या देश का कोई बड़ा शहर, हर जगह यह समस्या आम बात है. कई उपभोक्ता अपने फ़ोन को ऑटो रीडॉयल मोड में रखते हैं. यह समस्या को और बढ़ाती है.

कॉल ड्राप : जब आप या आप जिसे कॉल रहे हैं वो अगर चल रहे हैं, तो कॉल ड्राप की समस्या आम बात है. ऐसे में दोनों लोग रीडायल कर रहे होते हैं और संपर्क नहीं हो पाता है. अगर इनमें से कोई एक किसी ओवरलोडेड नेटवर्क एरिया में जाता है, तो आप आसानी से संपर्क नहीं कर पाएंगे.

इंटरनेट नहीं : भारत में मोबाइल डाटा का आंकड़ा गड़बड़ है. 3जी की सुविधा हर जगह नहीं है. जहां आपको 3जी का भरपूर सिग्नल मिल रहा हो, हो सकता है कि वहां आपको फ़ोन करने की सुविधा न मिले. यह उस देश का हाल है, जहां मोबाइल पर 24 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं, जो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ताओं का 92 फ़ीसद है.

ख़राब सिग्नल : मोबाइल फ़ोन के कमज़ोर सिग्नल बड़ी ऊंची इमारतों में बने दफ़्तरों और घरों में आम बात है.

क्यों है समस्या?

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अब सवाल यह है कि आधुनिक भारत में मोबाइल नेटवर्क की यह हालत क्यों है.

मोबाइल सेवा देने वाली कंपनी एयरटेल की योजना और रणनीति मामलों के प्रमुख श्याम मार्दिकर कहते हैं, '' इसकी तीन प्रमुख वजहें हैं, स्पेक्ट्रम, स्पेक्ट्रम और स्पेक्ट्रम.''

सभी वायरलेस संचार के सिग्नल को ले जाने वाली रेडियो तरंगों को स्पेक्ट्रम कहा जाता है. दुनिया भर में स्पेक्ट्रम पर सरकारी नियंत्रण है.

भारत में मोबाइल फ़ोन के लिए स्पेक्ट्रम बहुत कम है. जो है वो दर्जनों ऑपरेटरों में बंटा है. अधिकतर स्पेक्ट्रम रक्षा सेवाओं के लिए है.

दिल्ली के बड़े ऑपरेटर के पास उतने ही 3जी के उपभोक्ता हैं, जितने सिंगापुर और शंघाई के ऑपरेटर के पास हैं. लेकिन उनके पास उनके स्पेक्ट्रम का दसवां हिस्सा ही है.

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डिजिटल इंडिया को ख़तरा

दुनिया के जीएसएम ऑपरेटरों के एसोसिएशन के प्रमुख ने नवंबर में संचार मंत्री को लिखी एक खुली चिट्ठी में कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया के विचार को स्पेक्ट्रम संकट से ख़तरा है.

भारत में अभी क़रीब चार लाख 25 हज़ार मोबाइल फ़ोन टॉवर हैं. लेकिन दी टॉवर एंड इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोवाइडर्स एसोसिएशन का कहना है कि करीब दो लाख और टॉवर चाहिए.

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मोबाइल फ़ोन टॉवर्स से होने वाले रेडियेशन के ख़िलाफ़ धरना-प्रदर्शन हुए हैं. इस वजह से कई टॉवर बंद कर दिए गए. इसका मोबाइल फ़ोन सेवाओं पर प्रभाव पड़ा.

टेलीकॉम विशेषज्ञों का कहना है कि टॉवर्स से रेडियशन को लेकर धारणा गलत है. उनका कहना है कि भारत के मोबाइल फ़ोन टॉवर्स विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुरक्षा मानकों को पूरा करते हैं.

भारत में दस में से नौ प्री पेड उपभोक्ता हैं. इनका महीने का खर्च 120 रुपए से भी कम है. यह खर्च दुनिया में सबसे कम है. ऐसे उपभोक्ताओं की उम्मीदें ज्यादा हैं और धीरज कम.

जब वो किसी से संपर्क नहीं कर पाते हैं, तो लगातार री डायल करते रहते हैं. इससे नेटवर्क बिजी हो जाता है.

ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या स्पेक्ट्रम से भी तेज़ी से बढ़ेगी. अधिक लोग डाटा का इस्तेमाल करेंगे. इससे नेटवर्क पर दबाव बढ़ेगा. क्या चीजें भी बेहतर होंगी?

इस सवाल पर इस उद्योग के सूत्रों का कहना है, नहीं.

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