पटना (ब्यूरो)। प्राच्यविद्या से संबंधित अनुसंधान के लिए 1915 में स्थापित बिहार रिसर्च सोसाइटी आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल के बाद देश का दूसरा सबसे पुराना शोध संस्थान अब महज एक आदेशपाल के भरोसे चल रहा है। सुनकर आश्चर्य होगा। मगर ये हकीकत है। सोसाइटी में मौजूद बौद्ध धर्म एवं दर्शन से संबधित पाण्डुलिपियों को बचाने वाला अब कोई नहीं है। रिसर्च कार्य के लिए देश-विदेश से रिसर्च स्कॉलर तो आते हैं मगर बिना रिसर्च कार्य किए ही चलते जाते हैं। इसकी शिकायत दैनिक जागरण आई नेक्स्ट के पास पिछले कई दिनों मिल रही थी। हकीकत जानने के लिए हमारी टीम ने पड़ताल की तो पता चला कि 2009 में कला संस्कृति विभाग के द्वारा टेक ओवर किया गया। कई पद सृजित किए मगर इन पदों पर रिक्तियां आज तक नहीं हुई। पढि़ए खास रिपोर्ट

तिब्बती बौद्ध ग्रंथ को समझाने वाला कोई नहीं

कला संस्कृति एवं युवा विभाग के पूर्व अधिकारियों ने बताया कि 1929 से 1938 के बीच महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा चार बार तिब्बत की यात्रा कर करीब 10 हजार तिब्बती बौद्ध ग्रंथों को यहां लाकर रखा गया था। यह संग्रह दुर्लभ है तथा संसार के विद्वानों के बीच अत्यंत ही प्रसिद्ध है। ये सभी ग्रंथ प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय एवं विक्रमशिला महाविहार के विद्वानों द्वारा सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए तिब्बत ले जाए गए थे। बाद मे इन ग्रंथों का अनुवाद तिब्बती में हुआ। इसमें मुख्य रूप से मूल बुद्धवचन जिसे कंग्युर कहा जाता है इसके 100 बंडल है जिसमें कुल 812 ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों पर भारतीय दार्शनिकों की टीकायें है जिन्हें तंग्युर कहा जाता है। ये ग्रंथ 213 बंडल मे करीब साढे तीन हजार की संख्या मे है। मगर जानकारी के अभाव में रिसर्च स्कॉलर देखने से वंचित रह जाते हैं।

बिना रिसर्च कार्य किए लौट रहे स्कॉलर

बिहार रिसर्च सोसाइटी में बौद्ध धर्म एवं दर्शन पर रिसर्च करने के लिए तकरीबन एक सौ वर्ष से देश-विदेश से रिसर्च स्कॉलर आते रहे हैं। मगर विशेषज्ञ नहीं होने के चलते सोसाइटी में आने वाले रिसर्च स्कॉलर बिना रिसर्च कार्य किए ही वापस लौट जाते हैं। वर्तमान में यहां एक भी कर्मचारी नहीं है जिसे इस धरोहर के विषय मे जानकारी हो जिससे कि किसी को मदद मिल सके.भारतीय संस्कृति एवं परंपरा से संबंधित करीब चालीस हजार दुर्लभ शोध ग्रंथों एवं शोधपत्रिकाओं का यहां संग्रह है। सोने और चांदी के इंक लिखे सुवर्ण प्रभास सूत्र सहित संसार के प्राचीनतम हस्तलेखों में यहां की पाण्डुलिपियां रखी हैैं लेकिन दिखाने के लिए कोई कर्मचारी ही नहीं है।
शोधकर्ताओं को सहयोग हेतु एक भी कर्मी उपलब्ध नहीं है, कला संस्कृति विभाग मौन

बिहार रिसर्च सोसायटी का बिहार सरकार के कला संस्कृति एवं युवा विभाग द्वारा 2009 मे अधिग्रहण कर पटना संग्रहालय का शोध एवं प्रकाशन प्रभाग बनाया। रिसर्च स्कॉलर की मदद के लिए कई पद भी सृजत किए गए मगर 13 वर्ष गुजरने के बाद भी न तो इन पदों पर भर्ती हुई और न ही पाण्डुलिपियों के संरक्षण के लिए विभाग की ओर कोई ठोस कदम उठाया गया है.जबकि इंडियन एन्टीक्विटीज एंड आर्ट ट्रैजर एक्ट 1972 के अनुसार इस तरह की सांस्कृतिक धरोहर पुरावशेषों की श्रेणी मे आती हैं जिनकी रक्षा का दायित्व सरकार पर है।

एक अधिकारी के ऊपर कई संग्रहालयों की जिम्मेवारी

नाम न छापने के शर्त पर संग्रहालय के एक कर्मचारी ने बताया कि बिहार रिसर्च सोसाइटी का प्रभार विनय कुमार के ऊपर है। जो पटना संग्रहालय के सहायक संग्रहालय अध्यक्ष भी है। इसके अलावा बेगूसराय, बक्सर, जगीदशपुर, संग्रहालयों व पटना के बुद्ध स्मृति पार्क संग्रहालय, कर्पूरी ठाकुर संग्रहालय, बृज बिहारी संग्रहालय और शहीद सूरज नारायण सिंह संग्रहालय की जिम्मेदारी दी गई हैं।