नई दिल्ली (आईएएनएस)। दिन में छुपना और हर रात 20 किमी से अधिक चलना, कपड़ा कारखाने में काम करने वाले 23 वर्षीय मजदूर शिव बाबू की दिनचर्या बन गया है। बाबू, देश भर के अन्य प्रवासी मजदूरों की तरह औद्योगिक शहरों से अपने दूर-दराज के गाँव तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। बाबू हरियाणा के पानीपत शहर में एक कपड़ा कारखाने में काम करता था। लॉकडाउन लगने के बाद फैक्ट्री बंद है, पैसे ज्यादा बचे नहीं। ऐसे में अन्य साथियों के साथ हजार किमी दूर अपने गांव के लिए निकल पड़ा। इस यात्रा के दौरान उसे किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसके बारे में बाबू ने आईएएनएस को विस्तार से बताया।

हाईवे की बजाए बाहरी सड़कों पर चलते हैं

बातचीत के दौरान बाबू ने कहा, 'हमारी दैनिक यात्रा सुबह 3 बजे से 1 बजे तक और फिर दोपहर 3 बजे से रात 1 बजे तक चलती है। आराम करने का समय नहीं है। हमारे पास बहुत सीमित समय होता है और परिवार तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है। कभी-कभी एक पूरा दिन बर्बाद हो जाता है क्योंकि हमें छुपना पड़ता है ताकि कोई हमें पहचान न ले।' बाबू सहित अन्य मजदूर गुरुवार को दक्षिण दिल्ली में एक सुनसान बाजार में आराम कर रहे थे। मजदूरों अनुसार, दिन के समय में छुपना और केवल रात में चलने की रणनीति का उपयोग प्रवासी श्रमिकों द्वारा खूब किया जा रहा। बाबू ने कहा, "कुछ प्रवासी कर्मचारी हाईवे पर चलते हैं, अन्य लोग रेलवे लाइनों के बगल में चलते हैं, लेकिन हमने शहर के बाहरी इलाकों वाली सड़कों पर चलने का निर्णय लिया क्योंकि वहां पुलिस पिकेट नहीं होती। हम जंक्शनों और मुख्य सड़कों से बचकर चलते हैं। इन स्थानों पर कई पिकेट हैं और हमें कभी भी रोका और पकड़ा जा सकता है।"

1000 किमी और सफर है करना

बाबू के साथ पैदल घर लौट रहे 22 साल के मजदूर मोती ने बताया, 'हम पिछले 3 दिनों के दौरान 150 किमी से अधिक की दूरी तय कर चुके हैं। हमें अपने घर तक पहुंचने के लिए 700-1,000 किमी की यात्रा और करनी होगी। जिसमें लगभग एक हफ्ता और लग जाएगा।' मोती ने आगे बताया, "रास्ते में कई अच्छे लोग भी मिलते हैं, जो हमें शॉर्ट कट्स बताते हैं। हम अपराधी नहीं हैं, हमें बस घर पाने की जरूरत है, और हम अपने परिवारों को देखना चाहते हैं। हममें से किसी को भी बुखार या फ्लू जैसी बीमारी नहीं है।' मोती की मानें तो, उसके साथ के सभी लोग सुरक्षा उपायों का ध्यान में रखे हैं। सभी मजदूर लागातर हाथ धोते हैं और मास्क पहनते हैं। हम अन्य प्रवासी कामगारों के साथ भी बातचीत नहीं करते हैं जो घर वापस जा रहे हैं।

कोई पहचाने न, इसलिए करते हैं शराबियों की एक्टिंग

दिन में लोगों से छिपना कितनी मुश्किल होता है, इस पर मोती ने कहा, 'हम एक अनोखा तरीका अपनाते हैं। ग्रुप के सभी लोग अपना सामान या बैग वगैरह छुपा देते हैं और कहीं लेट जाते हैं। वहां से निकलने वाले लोग हमें लोकल वर्कर समझते हैं। कभी-कभी तो हमें मिट्टी के ढेर या सड़क किनारे बेसुध लेटना पड़ता है ताकि लोग हमें शराबी समझे और पूछताछ करने न आएं।' मोती ने आगे कहा, 'हालांकि, हम एक ही क्षेत्र में ज्यादा समय तक नहीं रह सकते, क्योंकि स्थानीय कर्मचारी हमें पहचानते नहीं हैं और वे मदद नहीं करेंगे। उन्हें लगेगा कि हम गलत हैं और हम बीमारी फैलाएंगे लेकिन मुझे भरोसा है, हम सिर्फ घर जाना चाहते हैं।

एक साल तक वापस नहीं लौटेंगे

घर लौटकर क्या करोगे? मजदूरों से जब उनकी भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछा गया, तो मोती ने कहा:" हम अपने गांव में रोजगार प्राप्त करेंगे। हमें वहां कुछ करना होगा। मुझे यकीन है कि यह बात एक दिन खत्म हो जाएगी। लेकिन हम अब कम से कम एक साल के लिए वापस नहीं आएंगे।' कोविड -19 महामारी और इसके प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए लॉकडाउन ने प्रवासी श्रमिकों को सबसे अधिक प्रभावित किया है। उनमें से ज्यादातर या तो एमएसएमई या निर्माण क्षेत्र के साथ नियोजित थे। उन सभी की नौकरी चली गई और लॉकडाउन अचानक लगा जिससे घर पहुंचने का समय भी नहीं मिला।

चलते-चलते फट गए जूते

इन मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई गई है तो वे ट्रेन से क्यों नहीं जाते। इस पर बाबू ने कहा, 'कुछ समय पहले, हमने सुना है कि बसें और ट्रेनें फिर से चल रही हैं, लेकिन बहुत कम ही होंगे जो उनका उपयोग करना चाहते हैं। इसके बजाय, यह बेहतर है कि हम चलते रहें। मेरी एकमात्र चिंता यह है कि मेरे जूते सभी खराब हो गए हैं और हर बार जब हम दुकान से चप्पल खरीदने जाते हैं तो वहां मौजूद लोग हमसे दूर भाग जाते।' बाबू ने कहा, " मैं वास्तव में चाहता हूं कि वे समझ सकें कि हमारा मतलब उन्हें नुकसान पहुंचाना नहीं। लेकिन मैं उन्हें दोष नहीं देता, वे वैसे ही डरे हुए हैं जैसे हम हैं।'

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