जब सारा देश नए साल में महिलाओं पर अत्याचार न होने देने का संकल्प ले रहा था उसी समय गुडग़ांव के एक समारोह में कला के नाम पर अश्लील कुंठाएं बेचने वाला एक सो-काल्ड सिंगर (?) अपने फूहड़ गानों का दरबार सजाये बैठा था. ये वही था जो क्रूर और अश्लील गाने गाता है और विडम्बना ये कि चीप पॉपुलैरिटी भी हासिल कर लेता है. दु:ख तो तब होता है जब इसके चाहने वालों में लड़कियां भी शामिल देखी जाती हैं.

लेकिन ये कैसा विरोधाभास है कि दिल्ली की सडक़ों पर जो युवा ‘वी वांट जस्टिस’ के नारे लगते, पुलिस की लाठी खाते पाए जाते हैं उनमें से ही कुछ इसके गानों और वाहियात कार्यक्रमों में थिरकते मिलते हैं. हैरानी तब और बढ़ जाती है जब देश की सरकारें इसे सरकारी कार्यक्रमों में बुलाती हैं. यकीन नहीं होता कि 21 वीं सदी में क्या यही कला और कलाकार हैं? अगर हां, तो मुझे लगता है कि कला और कलाकार दोनों की संवेदना मर चुकी है.  हिन्दुस्तान की इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री, खास तौर पर फिल्मों ने महिलाओं के साथ ज्यादातर अन्याय ही किया है.

एक महिला पर बीतने वाली सबसे भयानक ट्रेजडी ‘बलात्कार’ को फिल्मों में सक्सेस कंटेंट और मसाला एलिमेंट की तरह यूज किया जाता रहा है और लगभग हर फिल्म में महिला को उसकी सोकॉल्ड इज्जत लूटने के बाद हाशिए पर धकेल दिया जाता है और फिल्म इज्जत लूटने वाले पुरुष और इज्जत बचाने वाले पुरुष के संघर्ष की कहानी बन जाती है. इन फिल्मों और विज्ञापनों में कहीं न कहीं महिलाओं और उनके शरीर को किसी प्रॉडक्ट के ‘बूस्टर’ की तरह पेश करने की कोशिश की जाती है. तभी कहीं पंखे के विज्ञापन में फ्रॉक उड़ाती लडक़ी तो कहीं परफ्यूम के विज्ञापनों में लडक़े की ओर पागलों सी भागती, लिपटती, यहां तक कि शर्ट फाड़ती लड़कियां दिखाई गयी हैं. उदाहरणों कि फेहरिस्त बहुत लंबी है.

फिल्मी गानों के जरिये भी महिलाओं को चिकनी चमेली बनाकर पव्वा पिलाया गया तो कभी शीला और मुन्नी के बहाने लड़कियों की जिंदगी में जहर घोल दिया गया. टिंकू जिया को इश्क का मंजन कराती, फेविकोल से सीने में तस्वीर चिपकाने की नसीहत देने वाली कोई भी लडक़ी, इस देश की आम लडक़ी नहीं लगती. तो फिर न जाने ये कला और कलाकार कौन सी लडक़ी की तस्वीर दिखा रहे हैं?

मुझे तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब दिल्ली बलात्कार कांड के विरोध प्रदर्शन में शामिल एक लडक़ी अखबार में ये बयान देती है कि हनी सिंह अश्लील गाने गाता है पर उसमें सिर्फ  मनोरंजन है और कुछ नहीं...लगता है न्यू जेनरेशन कला के नाम चल रहे ‘कल्चरल इम्पिरिलिज्म’ को नहीं समझ पा रही है. तभी तो एक छोटी सी बच्ची गुडिय़ों से खेलने की उम्र में हॉट दिखना चाहती है. एक छोटा बच्चा ‘मैं हूं बलात्कारी’ गाना गाते पाया जाता और बड़े हो कर हनी सिंह जैसा बनना चाहता है. जिस उम्र में हम सिर्फ  फ्रेंड बनाया करते थे, उस उम्र में ये बच्चे ब्वायफ्रेंड और गर्लफ्रेंड बनाने में लगे हैं. अब इसे बदलती पीढ़ी का बदलाव कहें या बहकाव?

ये वो समय है जब पापुलैरिटी पाने के सस्ते तरीके लड़कियों को लुभाने लगे हैं और वो सत्ता, ताकत, रुतबा और दौलत के लिए फिजा, भंवरी देवी, मधुमिता शुक्ला और गीतिका शर्मा बन अपने दुखद अंत तक पहुंच रही हैं. आज दामिनी बलात्कार कांड ने पूरे देश को जगाकर रख दिया है, इसलिए जरूरी है कि हम हर विषय और हर स्तर पर चर्चा करें और जहां से भी हमारी वैल्यू सिस्टम में सेंध लग रही हो उसे ठीक करें. हमें स्वतंत्रता और स्वछंदता में फर्क पहचानना होगा. ये जानना होगा कि जिम्मेदार आजादी स्वतंत्रता होती है और बहकी हुई आजादी स्वच्छंदता. स्वतंत्रता के नाम पर समाज में गलत मूल्य स्थापित करने वाली हर चीज का प्रोटेस्ट करना होगा चाहे वो कला हो या कलाकार. तभी देश का यूथ गर्व से कह सकेगा...वी आर इंडियंस.

अनुराग अनंत

Writer is a freelancer